तो शुरू करते हैं, बिना किसी भूमिका के, कुछ ऐसे कि मानो ये ‘अनसंग हीरोज – इन्दु से सिंदू तक’ नाम की किताब किसी बुक स्टोर या रेलवे स्टेशन पर दिखाई दी, अथवा अमेजन पर यों ही दिख गई। ऐसे में यदि देखने वाला देवेंद्र से ज़रा भी परिचित नहीं, तो प्रथम दृष्टया क्या संदेश जाएगा ?
अव्वल उसे सर्वप्रथम दिखाई देगा कि ‘अनसंग हीरोज’ नाम की इस किताब के आवरण पृष्ठ पर बना ‘तिरंगा’, मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग्स और उनके ऊपर उड़ता हुआ हवाई जहाज!
आवरण पृष्ठ अपने आप में आधुनिक भारत को दर्शा रहा है।
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नाम ‘अनसंग हीरोज’ के साथ जोड़ा जाए, तो ये पुस्तक उन लोगों का कीर्ति गायन प्रतीत होती है ‘जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान तो दिया, किन्तु वे किन्हीं कारणों से अनसंग – यानी कि प्रशस्ति गायन से वंचित- रह गए’।
आवरण पृष्ट को देखकर ही अगर कालखंड का अनुमान लगाया जाए, तो पुस्तक सन् 1930 के पश्चात् की लगती है, बहुत होगा तो लेखक ने ये तार 1857 से जोड़े होंगे। फ्रंट-कवर यही परिलक्षित करता है, बस इतना ही!
किन्तु जब आप पुस्तक के विषय में इतना सोच कर उसे उठा लेते हैं, तो ‘Unsung Heroes’ के बैक-कवर पर लिखा एक अंश आपको सूचित करता है कि किताब मात्र अंग्रेजी हुकूमत तक नहीं, अपितु कहीं बहुत पीछे मुगलिया काल तक से ताल्लुक रखती है।
वहीं लेखक परिचय के ठीक नीचे लिखा तीन पंक्ति का पुस्तक परिचय संदेश देता है कि “ये पुस्तक उन बयालीस महानायकों को ले कर आ रही है, जिन्हें राजनीतिक षड्यंत्र ने समय की धूल में दबा दिया था”।
‘अनसंग हीरोज’ के लेखक ने ‘राजनीतिक षड्यंत्र’ शब्दबंध का प्रयोग बड़ी चतुराई से किया गया है। ये न केवल बुक-स्टोर्स पर पाठकों को भ्रमित करने का सामान है, अपितु फेसबुक पर भी हिन्दू राष्ट्रवादियों को भ्रमित करता है।
इसका सीधा संदेश ये मिलता है कि “कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल के दौरान भारत के जिस इतिहास को षड्यंत्रपूर्वक दबाया, देवेंद्र उसे लेकर आ रहे हैं”। धारणा मजबूत हो जाती है कि Unsung Heroes में शायद देवेंद्र उन सभी ऐतिहासिक षड्यंत्रों को नष्ट कर देंगे, जिन्हें कांग्रेसी प्रश्रय में रोमिला थापर, इरफ़ान हबीबी और रामचंद्र गुहा द्वारा स्थापित किया गया था।
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इससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि देवेंद्र को इतिहास का ज्ञान हो न हो, मार्केटिंग का बढ़िया ज्ञान है, हिन्दू-राष्ट्रवादियों की भावुक मानसिकता का अच्छा अध्ययन उसके पास है। यों भी पुस्तक के आरंभिक उठान के लिए एक अच्छी-खासी शुरुआती बिक्री आवश्यक थी, तो इस ‘Unsung Heroes – Indu se Sindhu tak’ को खरीदने के लिए इतनी वजहें – छिपे-दबे नायक, कांग्रेसी षड्यंत्र और इस्लाम का विरोध- काफी हैं! शेष रही वेस्टर्न अकैडमिया की स्वीकृति, सो किताब की विषय-वस्तु से मिल ही जानी थी।
यहाँ देवेंद्र की सामाजिक समझ पर तालियाँ बजाने का दिल करता है……!
किन्तु मैं आपको बता दूँ कि ’एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाए!’ की लीक पर देवेंद्र दोनों जहाँ से निष्काषित होंगे। देवेंद्र के एक तीर से दो शिकार वाले इरादे में कमी न थी, किन्तु उसकी अपनी लेखन क्षमता ने इस ‘अनसंग हीरोज – इन्दु से सिंदू तक’ में उसे धोखा दिया है और उसने इसे लिखकर अपने पाठकों को….!!
भगवान कृष्ण विषयक उसकी फेसबुक पोस्ट्स में भी मैंने अनुभव किया है कि देवेंद्र की किस्सागोई क्षमता वहीं तक चल पाती है, जहाँ तक युगंधर फेम शिवाजी सावंत उसे उँगली पकड़ कर ले जाते हैं। किताब में कथा सुनाते देवेंद्र बुरी तरह फ्लॉप हुए हैं। कुछ माह बाद ही ये किताब एक फांस बनकर उनके दिल में सदा – सदा के लिए चुभ जाएगी, एक ऐसी सोची समझी गलती, जो वर्षों तक सालेगी!!
किताब के बाहरी कलेवर से इतना ही जाना जा सकता है। हालाँकि पठन-पाठन की कुछ अधिक गहराइयों में उतरे लोग यह जान जाते हैं कि पुस्तक का नाम नया नहीं है। गलवान घाटी में भारतीय सेना का नेतृत्व कर चुके एक कर्नल ने इसी नाम ‘अनसंग हीरोज’ से तीन पुस्तकों की शृंखला लिखी है। और भी कई नाम इस शीर्षक तले इंटरनेट पर दिखाई देते हैं। रही बात ‘इंदु से सिंधु तक’ टैगलाइन की, तो वह भी एक अल्प-प्रसिद्ध लेखक मनीष देवलाल की पुस्तक ‘बिंदु से सिंधु तक’ का सस्ता प्रतिरूप है।
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बहरहाल, बहरकैफ़।
पुस्तक को खोला जाए, तो ज्ञात होता है कि “देवेंद्र अब नेहरू हो चुके हैं। जिस प्रकार नेहरू ने नेहरू के कहने पर नेहरू को भारत-रत्न दिया, ठीक उसी प्रकार, देवेंद्र ने देवेंद्र द्वारा आवरण पृष्ठ बनवा कर, देवेंद्र की किताब को प्रकाशित किया है”।
व्यंग्य से इतर नवोदित लेखकों के लिए सेल्फ-पब्लिशिंग एक फायदे का सौदा भी है। प्रकाशकों ने बीते कुछ दशकों में लेखकों का खूब शोषण किया है। इसपर फिर कभी, फिलहाल ब्लफ-बुक ‘अनसंग हीरोज’।
तनिक और भीतर उतरने पर छवि-निर्माण के तीन प्रयास मिलते हैं। एक प्रयास लेखक स्वयं करता है, बैक-कवर पर लिखे तीन पंक्ति वाले परिचय की व्याख्या उसी कांग्रेसी षड्यंत्र के रूप में करता है, जो 1947 में आरंभ हुआ था। दो अनुमोदन मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ एवं प्रसिद्ध लोक गायिका आदरणीया मालिनी अवस्थी के प्राप्त होते हैं।
अब अगले पृष्ठ पर विषय सूची है। इसमें भी आप नहीं जान सकते कि पुस्तक वस्तुतः किन दबे-छिपे महानायकों का गुणगान करने वाली है। विषय सूची में कुल बयालीस पाठ हैं। जिनमें कि खूब व्याकरणिक दोष हैं। पाठ-नामों के शब्दों की आपसी तुक नहीं बन पायी है, फ्रैंकली, किसी अंग्रेजी पुस्तक की इंडेक्स का सस्ता अनुवाद महसूस होता है।
कई नाम चुटकुलों जैसे भी हैं……
पहले पहल जब पुस्तक हाथ में आती है, तो ‘अनसंग हीरोज’ की विषय सूची के बहुवचन शब्दों को देखकर लगता है कि प्रत्येक शीर्षक तले एक से अधिक लोगों का ज़िक्र होगा। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, एक पाठ में एक ही पात्र का उल्लेख है। कदाचित् अधिक सम्मान देने के लिए देवेंद्र ने ये बहुवचन शैली अपनाई है। हालाँकि देवेंद्र का ये कृत्य उतना सरल नहीं, किताब के भीतर जाकर इसका मंतव्य स्पष्ट होता है।
ये जानना एक विचारशील पाठक के लिए कठिन होगा है कि पाठों के ऐसे कूट नाम रखने के स्थान पर सीधे – सीधे पात्रों के नाम क्यों नहीं दिए गए? ये तरीका पुस्तक को अधिक सुगम्यता प्रदान कर सकता था।
वस्तुतः देवेंद्र ये भी नहीं चाहते कि कोई सजग पाठक बुकस्टोर पर खड़ा-खड़ा ये जान सके कि दबे-छिपे नायकों के नाम पर जो किताब लिक्खी गई है, उसमें पचहत्तर प्रतिशत तो वही सब किरदार हैं जिनकी प्रशस्ति महाभारत, रामायण एवं पुराणें बड़े विशद ढंग से गा रही हैं।
इतना सब देखने/पढ़ने के बाद मस्तिष्क में प्रश्न उठता है कि ‘फिर इस पुस्तक में कथित “अनसंग” क्या है’?
‘अनसंग’ है वो दृष्टिकोण, जो देवेंद्र ने कथा के साथ खोला है!
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अव्वल तो यही जान लिया जाए कि लेखक की समयरेखा पाश्चात्य है। पाश्चात्य-जन कभी नहीं मान पाते हैं कि जब पश्चिमी दुनिया की बर्फ भी नहीं पिघली थी, तब आर्यावर्त में महाभारत जैसे उन्नत युद्ध की आहट थी।
ऐसे में भगवान राम, वैदिक व औपनिषदिक काल की पाश्चात्य स्वीकारोक्ति तो भूल ही जाइए। देवेंद्र के लिए हिन्दू-राष्ट्रवादी विचारधारा से अधिक पाश्चात्य स्वीकारोक्ति का महत्त्व है।
ठीक इसी कारण से, देवेंद्र की अवधारणाएँ कांग्रेसी इतिहासकारों से बहुत अलग नहीं हैं, बल्कि ‘टोटम’ यानी कि वनवासियों द्वारा वानर व नाग आदि के मुखौटे पहनने जैसे तथ्य/व्याख्याएँ तो शत-प्रतिशत रोमिला थापर से ही उठाए गए हैं।
पुस्तक के आंतरिक कलेवर के विषय में इससे अधिक कुछ कहना, देवेंद्र के उस दंभपूर्ण वक्तव्य का स्मरण दिलाता है कि ‘बीस पृष्ठ की संदर्भ ग्रन्थ सूची है, वहाँ से होकर आइए, तब बात करेंगे!’ तो ठीक है, अब अगले आलेख में उन्हीं संदर्भों की बात होगी।
‘अनसंग-हीरोज – इंदु से सिंधु तक’ में संदर्भों के साथ जिस तरह की मिलावट और खिलवाड़ देवेंद्र ने की है, उससे यही प्रतीत होता है कि महाभारत के ‘त्वया चापि मम चापि’ का अर्थ उसने ‘तू भी चाय पी, मैं भी चाय पीता हूँ’ के अर्थों में लिया है।
शेष फिर कभी! इति नमस्कारान्ते…