विलोल वीचि वल्लरी “शब्द जंग खा गए हैं/कविता चोटिल है”

‘विलोल वीचि वल्लरी’ की कवयित्री डॉ. पल्लवी मिश्रा संप्रति राजकीय महाविद्यालय डोईवाला (देहरादून) में अँग्रेजी विषय की सहायक प्रोफेसर हैं एवं हिंदी व अँग्रेजी भाषाओं में स्तरीय लेखन करतीं हैं।

‘विलोल वीचि वल्लरी’ (‘चंचल तरंग लताओं से’) नामक ‘काव्य संग्रह’ जिसका शीर्षक शिव तांडव स्तोत्रम से लिया गया है, उनका पहला हिंदी काव्य संग्रह है। जिसमें विविध विषयों पर 69 स्तरीय कविताएं पिरोई गईं हैं।

भाव, भाषा, विम्ब, प्रतीक, लक्षणा, कथावस्तु और कथ्य की विविधता आदि कसौटी पर इतना बेहतरीन काव्य संग्रह बहुत कम देखने को मिलता है।

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लगता है “विलोल विची वल्लरी” के द्वारा सृजन के उदात्त पलों को अप्रतिम हुनर के साथ ज़मीन पर उतारा है पल्लवी जी ने। इस तरह के लिए लेखन के लिए भाषा पर नियंत्रण जरूरी तो है ही साथ ही दृष्टि और प्रेरणा की गहराई भी अनिवार्य है। मेरा विश्वास है कि लिखे हुए आखर का प्रत्येक प्रेमी इस संग्रह के लिए एक ही शब्द बोलेगा–शानदार, Majestic !

एक नज़ीर देखिये —

शब्द जंग खा गए हैं

कविता चोटिल है।

भीतर जमी हिमशिला

केदार-सी तबाही देख

पत्थर वाली नदी होने को है…

नग्न और ज़ख्मी

अनुभूतियां

चट – चट

कट – कट

तड़ – तड़

जलना चाहतीं हैं

मसान की आग- सी । (‘शब्द जंग खा गए’ से)

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और “धरती का प्रेम” कविता से ये पंक्तियाँ भी सीधे दिल में उतर जातीं हैं :

ज़्यादा क़रीब न आओ, रुपहले चाँद

आसान नहीं

धरती-सा होना

प्रेम में भी ।

धरती का निर्विकार प्रेम–

धुन है

धुरी है

ध्यान है

जीवन का उन्माद है (‘विलोल वीचि वल्लरी’ के पृष्ठ 44)

और इस कविता को पढ़ते( या सूँघते समय !) तो सहृदय के आसपास खुशबुओं की बरसात हो जाएगी। आदमी अवरोध न बने, तो दुनिया यकीनन ऐसी ही होनी चाहिए :

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पलाश, अमलताश, गुलमोहर

मालती, शिउली, पारिजात की लंबी क़तारें

जब देने लगेंगीं सड़कों का पता

उन्हीं दिनों से

अपनी चिरंतन

सूर्य परिक्रमा पर निकली

पृथ्वी

ले जाया करेगी अपने आँचल में

सुगन्धित शिउली की पंखुड़ियाँ ….( ‘प्रकृति के संस्कार गीत’ — कविता से)

‘विलोल वीचि वल्लरी’ में विविध विषयों पर बोध, भाव और विचार की दृष्टि से लगभग पूर्ण कविताएं लिखीं गईं हैं लेकिन दो विषय जो प्रमुख हैं : नारी विमर्श के विविध आयाम और प्रेम की सतरंगी छवियाँ। नारी विमर्श पर पूरी की पूरी 10 कविताएं लिखी गईं हैं —

विदाई (पृष्ठ 21), देह है देश (पृष्ठ 65), कामाख्या (पृष्ठ 71), अन्न साधती अन्नपूर्णा (पृष्ठ 87), सतियों का सत(मेवाड़ की रानी पद्मिनी के जौहर पर- पृष्ठ 92), पीली कनेर सी लड़कियाँ (पृष्ठ 120), दिशा बनो लड़कियाँ (पृष्ठ 112), खोईमाला (पृष्ठ 132) गोपकी (पृष्ठ 139) और ‘हम- सती भी, डायन भी, (पृष्ठ 141)

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मुझे लगता है आज की पीढ़ी की लड़कियों के लिए (जब बाज़ार, फ़िल्म, साहित्य आदि उन्हें commodity बनाने पर आतुर दिखता हो) “दिशा बनो लड़कियो” जैसी कविता से बेहतर मार्गदर्शन नहीं हो सकता —

प्रेम जो गढ़ो तो सहेजो

लड़कियों

बातें सिलवटों की नहीं

रास्तों की हों

खुले आसमानों पर जो ठहरते हों…

प्रेम में जो पड़ो

तो चुनो वो पीताम्बर

कि बन सको मीरा

बसा सको

अंतस में समूची द्वारिका !(पृष्ठ 112)

“पीली कनेर सी लड़कियाँ” — कविता से ये पंक्तियां भी लाज़वाब हैं —

बिजली की कौंध सा प्यार

बादलों में छुपाए

बारिश – सी लड़कियाँ

जब

मेढ़ों, तालाबों की ठौर

जा रहतीं हैं,

तब

शब्द या संकेत भर न रह कर

पानी या आँसू – सा

यथार्थ हुआ जाता है प्यार …(पृष्ठ 120)

अटलता/consistancy प्रेम की बुनियादी शर्त है – चाहे कोई आदमी के प्रेम में हो या अस्तित्व के। लेकिन इस तरह का प्रेम इस दुनिया मे देव दुर्लभ है… मुझे कीट्स याद आये–

Where Beauty cannot keep her lustrous eyes

Or new Love pine at them beyond tomorrow…

प्रेम जैसे जटिल विषय और सरल-तरल भाव पर 8 कविताएं समर्पित हैं–

धरती का प्रेम (पृष्ठ 44), तुम आओगे न, कृष्ण? (पृष्ठ 78), प्रेम-गंभीर और चुप (पृष्ठ 105), प्रेम के विधान (पृष्ठ 108), जीवन के खगोल पर (पृष्ठ 118), प्रेम कापालिक (पृष्ठ 128), पलाश का विद्रोही प्रेम (पृष्ठ 130) और सुभद्रा-शरण (पृष्ठ 135)

श्री कृष्ण का आह्वान कितनी खूबसूरती से किया गया है —

तुम आते

कि विषाक्त है यमुना

विषवत ही प्रेम

प्याला-प्याला है विष

घड़ी-घड़ी ही मृत्यु

हुई न फ़िर राधा

हुआ न कोई कान्हा

तुम्हारी द्वारिका सा विलुप्त है प्रेम..(पृष्ठ 78-79)

बोध की पागल तितलियों का ठुकराया प्रेमी jilted lover , उस पलाश के प्रेम को भी जान लीजिए-

प्रेम जो उग आया

पत्तियों के प्रश्रय बिना

निंदित है,

कि भर उठा है

लाज से सारा अरण्य

फुसफुसा गई है हवा

झाड़ियों और झुरमुटों तक से …

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माओवाद की समस्या से लेकर देशप्रेम तक (“बरगद सा ये देश” पृष्ठ 54), (पृष्ठ 60/62 पर दो कविताएं शहीदों को समर्पित हैं) , गंगा (पृष्ठ 23) और यमुना (पृष्ठ 27) की चिंता तक, दरकते, सिमटते हिमालय से लेकर लेखन और मीडिया के क्षेत्र में आती गिरावट तक – ज्वलंत और प्रासंगिक विषयों पर पल्लवी जी ने अपनी कलम चलाई है। “तुम्हारी कुटिल मुस्कुराहटें”(पृष्ठ 49) कविता क़दम-क़दम पर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने वालों को बेनक़ाब करती है तो “शरणार्थी”, (पृष्ठ 101), “एक टुकड़ा वक़्त”( पृष्ठ 83-84) और “पन्नों पर कलम” (पृष्ठ 14) भी लाज़वाब कविताएं हैं।

प्रतिध्वनियां/echoes भी रहस्य और दर्शन का मुलम्मा लिए है :

अजनबी मेड़ों और रास्तों से

लौटा आती हैं

बादलों के अनमने गुच्छे

हवाओं की सरसराती उदासी

बूँदों की बेतुकी झुरझुरी

धूप की पिघलती तपिश

हवाओं में उठते

औंधे मुँह गिरते पत्ते

ले आते हैं जोगनिया संदेश….

इस “विलोल विची वल्लरी” को पल्लवी जी ने अपनी कर्मभूमि ‘देवभूमि’ को समर्पित किया है जो उत्तराखंड हिमालय को लेकर उनके प्रेम की सनद है। अच्छा होता कि अपने सृजन की प्रेरणा और प्रभावों पर एक दो पृष्ठ की भूमिका लिखी जाती।

समीक्षक : चरण सिंह केदारखंडी

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