महान कवि माखनलाल चतुर्वेदी की 10 प्रमुख कविताएँ

भारत के ख्यातिप्राप्त कवियों में माखनलाल चतुर्वेदी का एक प्रमुख स्थान है। उनका जन्म ४ अप्रैल १८८९ को मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले के बाबई नामक गाँव में हुआ था एवं ३० जनवरी १९६८ को आपका देहावसान हुआ।

अपनी प्राइमरी शिक्षा समाप्त करने के बाद आपने घर पर ही एक से अधिक भाषाओं जैसे – संस्कृत, बांग्ला , अंग्रेजी, गुजराती आदि का ज्ञान प्राप्त किया। आगे श्री माखनलाल चतुर्वेदी एक लेखक और पत्रकार के रूप में ख्याति प्राप्त हुये,  एक लेखक के रूप में आपकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। उनकी एक कविता “पुष्प की अभिलाषा” सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई,

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की उन्हीं रचनाओं में से हम आपके लिए लेकर आए है 10 प्रमुख़ कविताएँ!

1. पुष्प की अभिलाषा…

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर,  हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली।
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।।

यह भी पढ़ें: भूमिहार कौन हैं | ये कहाँ से आए ?

2. दूधिया चाँदनी साँवली हो गई…

साँस के प्रश्न-चिन्हों, लिखी स्वर-कथा
क्या व्यथा में घुली, बावली हो गई
तारकों से मिली, चन्द्र को चूमती
दूधिया चाँदनी साँवली हो गई।

खेल खेली खुली, मंजरी से मिली
यों कली बेकली की छटा हो गई
वृक्ष की बाँह से छाँह आई उतर
खेलते फूल पर वह घटा हो गई।

वृत्त लड़ियाँ बना, वे चटकती हुई
खूब चिड़ियाँ चली, शीश पै छा गई
वे बिना रूप वाली, रसीली, शुभा
नन्दिता, वन्दिता, वायु को भा गई।

चूँ चहक चुपचपाई फुदक फूल पर
क्या कहा वृक्ष ने, ये समा क्यों गई
बोलती वृन्त पर ये कहाँ सो गई
चुप रहीं तो भला प्यार को पा गई।

वह कहाँ बज उठी श्याम की बाँसुरी
बोल के झूलने झूल लहरा उठी
वह गगन, यह पवन, यह जलन, यह मिलन
नेह की डाल से रागिनी गा उठी।

ये शिखर, ये अँगुलियाँ उठीं भूमि की
क्या हुआ, किसलिए तिलमिलाने लगी
साँस क्यों आस से सुर मिलाने लगी
प्यास क्यों त्रास से दूर जाने लगी।

शीष के ये खिले वृन्द मकरन्द के
लो चढ़ायें नगाधीश के नाथ को
द्रुत उठायें, चलायें, चढ़ायें, मगन
हाथ में हाथ ले, माथ पर माथ को।

3. दीप से दीप जले…

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में

लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल

शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर

भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल

तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।।

यह भी पढ़ें: नाथूराम गोडसे की गोली ने कैसे बनाया “गाँधी” को महान ?

4. अमर राष्ट्र…

छोड़ चले, ले तेरी कुटिया
यह लुटिया-डोरी ले अपनी
फिर वह पापड़ नहीं बेलने
फिर वह माल पड़े न जपनी।

सूली का पथ ही सीखा हूँ
सुविधा सदा बचाता आया
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ
जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है
फूँक चलूँ जिससे नभ-जल-थल
मैं तो हूँ बलि-धारा-पंथी
फेंक चुका कब का गंगाजल।

यह जागृति तेरी तू ले-ले
मुझको मेरा दे-दे सपना
तेरे शीतल सिंहासन से
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे
इस उतार से जा न सकोगे
तो तुम मरने का घर ढूंढो
जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश, – भाई होने को
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी
आया था इस घर एकाकी
जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित
कर लो, उससे जी बहला लें
युग की होली माँग रही है
लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें
रस उसका जिसकी तरुणाई
रस उसका जिसने सिर सौंपा
आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों
उस रस पर विष हँस-हँस डालो
आओ गले लगो, ऐ साजन
रेतो तीर,  कमान सँभालो।

हाय,  राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभू खोजा
लगे माँगने जाकर रक्षा
और स्वर्ण-रूपे का बोझा।

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा
फूँक जला दें सोना-चाँदी
तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।

चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस
सागर गरजे मस्ताना-सा
प्रलय राग अपना भी उसमें
गूँथ चलें ताना-बाना-सा।

बहुत हुई यह आँख-मिचौनी
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी
मैं साँसों के डाँड उठाकर
पार चला, लेकर युग-तरनी।

मेरी आँखे, मातृ-भूमि से
नक्षत्रों तक, खीचें रेखा
मेरी पलक-पलक पर गिरता
जग के उथल-पुथल का लेखा।

मैं पहला पत्थर मन्दिर का
अनजाना पथ जान रहा हूँ
गूड़ँ नींव में,  अपने कन्धों पर
मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

मरण और सपनों में
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी
किसकी यह मरजी-नामरजी
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी।

अमर राष्ट्र,  उद्दण्ड राष्ट्र,  उन्मुक्त राष्ट्र
यह मेरी बोली
यह सुधार समझौतों बाली
मुझको भाती नहीं ठठोली।

मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूछ मरोरी
जाने दे, सिर,  लेकर मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी।

5. बदरिया थम-थमकर झर री !…

बदरिया थम-थनकर झर री !
सागर पर मत भरे अभागन
गागर को भर री !

बदरिया थम-थमकर झर री !
एक-एक, दो-दो बूँदों में
बंधा सिन्धु का मेला,
सहस-सहस बन विहंस उठा है
यह बूँदों का रेला।
तू खोने से नहीं बावरी,
पाने से डर री !

बदरिया थम-थमकर झर री!
जग आये घनश्याम देख तो,
देख गगन पर आगी,
तूने बूंद, नींद खितिहर ने
साथ-साथ ही त्यागी।
रही कजलियों की कोमलता
झंझा को बर री !

बदरिया थम-थमकर झर री !

यह भी पढ़ें: हाँ, अब मैं अकेला हूँ !! | Yes I am lonely

6. प्यारे भारत देश…

प्यारे भारत देश

गगन-गगन तेरा यश फहरा
पवन-पवन तेरा बल गहरा
क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले
चरण-चरण संचरण सुनहरा

ओ ऋषियों के त्वेष
प्यारे भारत देश।।

वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी
प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी
उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक
मानो आँसू आये बलि-महमानों तक

सुख कर जग के क्लेश
प्यारे भारत देश।।

तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी

बातें करे दिनेश
प्यारे भारत देश।।

जपी-तपी, संन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे
हम सब एक, अनेक रूप में, क्या उभरे क्या ऊबे
सजग एशिया की सीमा में रहता केद नहीं
काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं

श्रम के भाग्य निवेश
प्यारे भारत देश।।

वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,

जय-जय अमित अशेष
प्यारे भारत देश।।

7. जीवन, यह मौलिक महमानी…

जीवन, यह मौलिक महमानी

खट्टा, मीठा, कटुक, केसला
कितने रस, कैसी गुण-खानी
हर अनुभूति अतृप्ति-दान में
बन जाती है आंधी-पानी

कितना दे देते हो दानी
जीवन की बैठक में, कितने
भरे इरादे दायें-बायें
तानें रुकती नहीं भले ही
मिन्नत करें कि सौहे खायें

रागों पर चढ़ता है पानी
जीवन, यह मौलिक महमानी

ऊब उठें श्रम करते-करते
ऐसे प्रज्ञाहीन मिलेंगे
साँसों के लेते ऊबेंगे
ऐसे साहस-क्षीण मिलेगे

कैसी है यह पतित कहानी?
जीवन, यह मौलिक महमानी।

ऐसे भी हैं, श्रम के राही
जिन पर जग-छवि मंडराती है
ऊबें यहाँ मिटा करती हैं
बलियां हैं, आती-जाती हैं

अगम अछूती श्रम की रानी!
जीवन, यह मौलिक महमानी।

यह भी पढ़ें: क्या हैं – दो प्रकार की COVID -19 वैक्सीन लगवाने के Side Effects?

8. बेटी की विदा…

आज बेटी जा रही है
मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।

मिलन यह जीवन प्रकाश
वियोग यह युग का अँधेरा
उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।

यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन
यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल रुनझुन
यह क्या, कि इस वीथी तुम्हारे तोतले से बोल फूटे
यह क्या, कि इस वैभव बने थे, चित्र हँसते और रूठे।

आज यादों का खजाना,  याद भर रह जायगा क्या
यह मधुर प्रत्यक्ष, सपनों के बहाने जायगा क्या।

गोदी के बरसों को धीरे-धीरे भूल चली हो रानी
बचपन की मधुरीली कूकों के प्रतिकूल चली हो रानी
छोड़ जाह्नवी कूल, नेहधारा के कूल चली चली हो रानी
मैंने झूला बाँधा है, अपने घर झूल चली हो रानी

मेरा गर्व,  समय के चरणों पर कितना बेबस लोटा है
मेरा वैभव, प्रभु की आज्ञा पर कितना, कितना छोटा है
आज उसाँस मधुर लगती है, और साँस कटु है, भारी है
तेरे विदा दिवस पर, हिम्मत ने कैसी हिम्मत हारी है।

कैसा पागलपन है, मैं बेटी को भी कहता हूँ बेटा
कड़ुवे-मीठे स्वाद विश्व के स्वागत कर,  सहता हूँ बेटा
तुझे विदाकर एकाकी अपमानित-सा रहता हूँ बेटा
दो आँसू आ गये, समझता हूँ उनमें बहता हूँ बेटा

बेटा आज विदा है तेरी, बेटी आत्मसमर्पण है यह
जो बेबस है, जो ताड़ित है, उस मानव ही का प्रण है यह।

सावन आवेगा, क्या बोलूँगा हरियाली से कल्याणी
भाई-बहिन मचल जायेंगे, ला दो घर की, जीजी रानी
मेंहदी और महावर मानो सिसक सिसक मनुहार करेंगी
बूढ़ी सिसक रही सपनों में, यादें किसको प्यार करेंगी

दीवाली आवेगी, होली आवेगी, आवेंगे उत्सव
’जीजी रानी साथ रहेंगी’ बच्चों के? यह कैसे सम्भव?

भाई के जी में उट्ठेगी कसक, सखी सिसकार उठेगी
माँ के जी में ज्वार उठेगी, बहिन कहीं पुकार उठेगी।

तब क्या होगा झूमझूम जब बादल बरस उठेंगे रानी
कौन कहेगा उठो अरुण तुम सुनो, और मैं कहूँ कहानी।

कैसे चाचाजी बहलावें, चाची कैसे बाट निहारें
कैसे अंडे मिलें लौटकर, चिडियाँ कैसे पंख पसारे।

आज वासन्ती दृगों बरसात जैसे छा रही है।
मिलन और वियोग की दुनियाँ नवीन बसा रही है।

आज बेटी जा रही है।

यह भी पढ़ें: COVID 19 वैक्सीन लेने के बाद क्या करें और क्या न करें

9. वेणु लो, गूँजे धरा…

वेणु लो, गूँजे धरा मेरे सलोने श्याम
एशिया की गोपियों ने वेणि बाँधी है
गूँजते हों गान,गिरते हों अमित अभिमान
तारकों-सी नृत्य ने बारात साधी है।

युग-धरा से दृग-धरा तक खींच मधुर लकीर
उठ पड़े हैं चरण कितने लाड़ले छुम से
आज अणु ने प्रलय की टीका
विश्व-शिशु करता रहा प्रण-वाद जब तुमसे।

शील से लग पंचशील बना, लगी फिर होड़
विकल आगी पर तृणों के मोल की बकवास
भट्टियाँ हैं, हम शान्ति-रक्षक हैं
क्यों विकास करे भड़कता विश्व सत्यानाश।

वेद की-सी वाणियों-सी निम्नगा की दौड़
ऋषि-गुहा-संकल्प से ऊँचे उठे नगराज
घूमती धरती, सिसकती प्राण वाली साँस
श्याम तुमको खोजती, बोली विवश वह आज।

आज बल से, मधुर बलि की, यों छिड़े फिर होड़
जगत में उभरें अमित निर्माण, फिर निर्माण,
श्वास के पंखे झलें, ले एक और हिलोर
जहाँ व्रजवासिनि पुकारें वहाँ भेज त्राण।

हैं तुम्हारे साथ वंशी के उठे से वंश
और अपमानित उठा रक्खे अधर पर गान
रस बरस उट्ठा रसा से कसमसाहट ले
खुल गये हैं कान आशातीत आहट ले।

यह उठी आराधिका सी राधिका रसराज
विकल यमुना के स्वरों फिर बीन बोली आज
क्षुधित फण पर क्रुधित फणि की नृत्य कर गणतंत्र
सर्जना के तन्त्र ले, मधु-अर्चना के मन्त्र।

आज कोई विश्व-दैत्य तुम्हें चुनौती दे
औ महाभारत न हो पाये सखे! सुकुमार
बलवती अक्षौहिणियाँ विश्व-नाश करें
`शस्त्र मैं लूँगा नहीं’ की कर सको हुँकार।

किन्तु प्रण की, प्रण की बाजी जगे उस दिन
हो कि इस भू-भाग पर ही जिस किसी का वार
तब हथेली गर्विताएँ, कोटि शिर-गण देख
विजय पर हँस कर मनावें लाड़ला त्यौहार।

आज प्राण वसुन्धरा पर यों बिके से हैं
मरण के संकेत जीवन पर लिखे से हैं
मृत्यु की कीमत चुकायेंगे सखे मय सूद
दृष्टि पर हिम शैल हो, हर साँस में बारूद।

जग उठे नेपाल प्रहरी, हँस उठे गन्धार
उदधि-ज्वारों उमड़ आय वसुन्धरा में प्यार
अभय वैरागिन प्रतीक्षा अमर बोले बोल
एशिया की गोप-बाला उठें वेणी खोल।

नष्ट होने दो सखे! संहार के सौ काम
वेणु लो, गूँजे धरा, मेरे सलोने श्याम।।

यह भी पढ़ें: ऐनी-फ्रैंक की डायरी | “एक बहादुर ‘यहूदी’ लड़की”

10. कल-कल स्वर में बोल उठी है…

नयी-नयी कोपलें, नयी कलियों से करती जोरा-जोरी
चुप बोलना, खोलना पंखुड़ि, गंध बह उठा चोरी-चोरी।

उस सुदूर झरने पर जाकर हरने के दल पानी पीते
निशि की प्रेम-कहानी पीते, शशि की नव-अगवानी पीते।

उस अलमस्त पवन के झोंके ठहर-ठहर कैसे लहाराते
मानो अपने पर लिख-लिखकर स्मृति की याद-दिहानी लाते।

बेलों से बेलें हिलमिलकर, झरना लिये बेखर उठी हैं
पंथी पंछी दल की टोली, विवश किसी को टेर उठी है।

किरन-किरन सोना बरसाकर किसको भानु बुलाने आया
अंधकार पर छाने आया, या प्रकाश पहुँचाने आया।

मेरी उनकी प्रीत पुरानी, पत्र-पत्र पर डोल उठी है
ओस बिन्दुओं घोल उठी है, कल-कल स्वर में बोल उठी है।

 

Shreshtha is a media professional with 6 years of experience in journalism, including 2 years as a freelance writer and 4 years in full-time roles. With degrees in mass communication and law, she specializes in business reporting and has 3000+ bylines to her credit. Passionate about journalism, she excels in storytelling, writing, researching, editing, reporting and team leading.

Leave a Comment