अक्सर हम जिसे अशोक समझ कर घर पर लगाते हैं, वह अशोक वाटिका का पेड़ ‘सीता अशोक’ (Saraca Indica) नही हैं अपितु नकली अशोक (Polyathia Longifolia) है….।
अशोक को घर के आसपास लगाना शुभ माना गया हैं पर हम वास्तविक अशोक को भूल गए है…।
यह भारत के उड़ीसा प्रान्त का राजकिय पुष्प है।
अशोक को सीता अशोक भी कहा जाता हैं… यह अशोक वही वृक्ष हैं जिसका नाम रामायण में अशोक वाटिका से जुड़ा हैं जहाँ माता सीता को रखा गया था…।
लेकिन, नकली अशोक और सीता-अशोक में अंतर क्या है :
वर्तमान में भुलवश या जानकारी ना होने के कारण लोग इस नकली अशोक के पेड़ को ही असली अशोक समझते हैं जबकि इतिहास में वर्णित असली अशोक ‘सीता-अशोक’ है।
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वनस्पति विज्ञानी भी नकली और असली अशोक की बात को अच्छी तरह जानते हैं। इसी कारण उन्होंने इन दोनों वृक्षों के वानस्पतिक नाम भी अलग-अलग रखे हैं। अंग्रेजों के समय से ही इमारतों की शोभा बढ़ाने के लिए उनके आसपास जो लंबे, लहरदार हरी पत्तियों वाले अशोक के वृक्ष लगाए जाते हैं, इसी लिए वनस्पति विज्ञानी उसे ‘पालीएल्थिया लोंगीफोलिया (Polyathia Longifolia)’ कहते हैं। यह नकली अशोक मुख्यतः श्रीलंका और दक्षिण भारत में पाया जाता है। यह वृक्ष शोभाकारी इसलिए लगता है क्योंकि इसकी शाखें भूमि की ओर झुकी होती हैं और उन पर लगी लंबी पत्तियां उन वृक्षों को एक स्तम्भ का रूप दे देती हैं। इसी कारण लोग इसे मास्ट-ट्री के नाम से भी जानते हैं। इस नकली अशोक पर हरे रंग के फूल आते हैं।
सीता-अशोक भारत का अपना देशज वृक्ष है और यह भारत में प्राचीनकाल से ही पाया जाता है। इसी कारण वनस्पति विज्ञानियों ने इसका नाम ‘सराका इंडिका (Saraca Indica)’ रखा है। यहाँ इंडिका से अर्थ है मूल रूप से भारतीय।
इसके इस नामकरण से पहले तक इसे ‘जोनेशिया अशोका’ के नाम से जाना जाता था। इसका यह नाम अंग्रेजों ने अपने शासन काल के एक अंग्रेज विद्वान ‘सर विलियम जोंस‘ के सम्मान में रख दिया था। आजादी के बाद एक बार फिर से इसका अपना पुराना नाम ‘सराका इंडिका’ कर दिया गया।
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अँग्रेजी शासन से पहले यह वृक्ष भारत भर में पाया जाता था लेकिन धीरे-धीरे लोग इसे भूल गए और बाग-बगीचों, स्मारकों और इमारतों के आस-पास नकली अशोक अधिक लगाया जाने लगा। बंगाल और असम की खासी पहाड़ियों में सीता-अशोक बहुतायत से उगता था। मुंबई के आसपास भी सीता-अशोक के वृक्ष काफी पाए जाते थे।
ऐसा कहा जाता है कि जिस पेड़ के नीचे बैठने से शोक नहीं होता, उसे अशोक कहते हैं, अर्थात् जो स्त्रियों के सारे शोकों को दूर करने की शक्ति रखता है, वही अशोक है…।
भारतीय शास्त्रों में अशोक के वृक्ष को उर्वरता का प्रतीक माना गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार अशोक के पुष्प को कामदेव के पंच-पुष्पी तूरीण (तरकश) का एक पुष्प माना गया है। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध निबन्धकार ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी‘ ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘अशोक के फूल’ में लिखा है: “अशोक के फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तंभकों में कैसा मोहन भाव है! बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।”
कहते हैं लुंबिनी में बुद्ध का जन्म भी सीता-अशोक के वृक्ष के नीचे ही हुआ था। इसलिए बौद्ध धर्म में यह एक पूज्य वृक्ष माना गया है। यह भी कहा जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपना प्रथम उपदेश सीता-अशोक के नीचे बैठ कर ही दिया था।
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रामायण में वर्णित अशोक वाटिका को भी सीता-अशोक के कुंजों की वाटिका माना गया है। कालीदास ने अपने काव्य ‘ऋतु संहार’ और नाटकों में अशोक के वृक्ष का मनोहारी वर्णन किया है। किंवदंती है कि सीता के पदप्रहार से अशोक में फूल खिल गए थे। तब से यह विश्वास चल पड़ा कि युवतियों के पदप्रहार से सीता-अशोक में फूल खिल जाते हैं।
अशोक का पेड़ वर्षा वन का वृक्ष है। यह मुख्य रूप से दक्षिणी पठार के मध्य क्षेत्रों के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में पाया जाता है।
अशोक का पेड़ आम के पेड़ की तरह सदा हरा-भरा रहता है, जो 7.5 से 9 मीटर तक ऊंचा तथा अनेक शाखाओं से युक्त होता है….।
इसका तना सीधा आमतौर पर लालिमा लिए हुए भूरे रंग का होता है….
अशोक के पत्ते डंठल के दोनों ओर 5-6 के जोड़ों में 9 इंच लंबे, गोल व नोकदार होते हैं… प्रारंभ में पत्तों का रंग तांबे के रंग के समान होता है, जो बाद में लालिमा लिए हुए गहरे हरे रंग का हो जाता है… सूखने के बाद पत्तों का रंग लाल हो जाता है…
पुष्प प्रारंभ में सुंदर, पीले, नारंगी रंग के होते हैं… बंसत ऋतु में लगने वाले पुष्प गुच्छाकार, सुगंधित, चमकीले, सुनहरे रंग के होते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं…
मई के माह में लगने वाली फलियां 4 से 10 बीज वाली होती हैं… अशोक फली गहरे जामुनी रंग की होती है.. फली पहले गहरे जामुनी रंग की होती है, जो पकने पर काले रंग की हो जाती है…
पेड़ की छाल मटमैले रंग की बाहर से दिखती है, लेकिन अंदर से लाल रंग की होती है…।
आयुर्वेदिक मतानुसार अशोक का रस कड़वा, कषैला, शीत प्रकृति युक्त, चेहरे की चमक बढ़ाने वाला, प्यास, जलन, कीड़े, दर्द, जहर, खून के विकार, पेट के रोग, सूजन दूर करने वाला, गर्भाशय की शिथिलता, सभी प्रकार के प्रदर, बुखार, जोड़ों के दर्द की पीड़ा नाशक होता है….।
आयुर्वेद के अनुसार यह स्त्रियों के प्रदर और मासिकधर्म संबन्धित रोगों में बहुत लाभकारी है। इसी कारण अनेका आर्युवेदिक औषधियाँ बनाने वाली कंपनियाँ ‘अशोकारिष्ट’ नाम से इसके औषधि का निर्माण करती हैं।
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होम्योपैथी मतानुसार अशोक की छाल के बने मदर टिंचर से गर्भाशय सम्बंधी रोगों में लाभ मिलता है और बार-बार पेशाब करने की इच्छा होना, पेशाब कम मात्रा में होना, मासिक-धर्म के साथ पेट दर्द, अनियमित स्राव तथा रक्तप्रदर का कष्ट भी दूर होता है….।
वैज्ञानिक मतानुसार, अशोक का मुख्य प्रभाव पेट के निचले भागों यानी योनि, गुर्दों और मूत्राशय पर होता है…. गर्भाशय के अलावा ओवरी पर इसका उत्तेजक असर पड़ता है,यह महिलाओं में प्रजनन शक्ति को बढ़ाता है… ।
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