शैलराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका ‘शैलपुत्री‘ नाम पड़ा था। माँ शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल पुष्प सुशोभित हैं। यही नव दुर्गों में प्रथम दुर्गा हैं! अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी।
हिंदुओं के पवित्र और पावन त्यौहार नवरात्र वर्ष में दो बार मनाए जाते हैं, प्रथम नवरात्र हिंदुओं के नव वर्ष के प्रारम्भ में चैत्र मास “चैत्र नवरात्र” के नाम से एवं द्वितीय नवरात्र “शारदीय नवरात्र” के नाम से कार्तिक मास में मनाए जाते हैं।
दोनों ही नवरात्र में सिर्फ समय/मास का अंतर है अन्यथा दोनों में ही हिंदुओं द्वारा आदि शक्ति ‘माँ दुर्गा’ के नवरूपों की पुजा अर्चना की जाती है। नवरात्र के प्रथम दिन ‘माँ शैलपुत्री’ की पुजा का विधान है।
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आदि शक्ति ‘माँ दुर्गा’ के पहले स्वरुप को ‘माँ शैलपुत्री‘ के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों के अनुसार नवरात्र के प्रथम दिन की उपासना में शक्ति के साधक/भक्त का अपने मन को ‘मूलाधार चक्र’ (जिसे कुंडलिनी शक्ति का प्रथम चक्र कहते हैं) में स्थित करते हैं। यहीं से साधक की शक्ति एवं योग साधना का प्रारंभ होता है। जिस प्रकार कुंडलिनी शक्ति के सात चक्रों में मूलाधार प्रथम है ठीक उसी प्रकार आदि शक्ति दुर्गा के नौ रूपों में ‘माँ शैलपुत्री’ प्रथम रूप है।
माँ के शैलपुत्री रूप के बारे शास्त्रज्ञों का कथन है कि माँ शैलपुत्री का पूर्वजन्म प्रजापति दक्ष के यहाँ हुआ था और उस जन्म में उनका नाम ‘सती’ था। उस जन्म में भी उनका विवाह देवाधिदेव भगवान ‘शिव’ के साथ ही हुआ था।
कहा जाता है कि प्रजापति दक्ष को अपनी पुत्री का शिव के साथ विवाह स्वीकार्य नहीं था अतः इस कारण से वह आदिदेव ‘शिव’ को पसंद नहीं करते थे।
उस समय एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में उन्होंने भगवान ‘विष्णु’ एवं पिता ब्रह्मा सहित देवलोक के सभी देवताओं को निमंत्रित किया किन्तु भगवान शंकर को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया।
जब सती ने अपने पिता द्वारा किए जा रहे इस अत्यंत विशाल यज्ञ अनुष्ठान के बारे में सुना तो वहाँ जाने एवं उस यज्ञ में शामिल होने के लिए उनका स्त्री सुलभ मन व्याकुल हो उठा।
माता सती ने अपनी यह इच्छा भगवान शंकर को बताई और अपने पिता के यज्ञ में जाने की बात कही।
सती द्वारा कही गई बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा – आपके पिता प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। इसीलिए उन्होंने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को निमंत्रित किया है, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में बिना बुलाये तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।’ उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं,
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लेकिन भगवान शंकर द्वारा समझने के बाद भी माता सती का मन नहीं माना और पिता के यज्ञ में शामिल होने एवं वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी तीव्र इच्छा किसी भी प्रकार कम नहीं हुई। उनका स्त्रीहठ देखकर भगवान शंकर ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
जब सती पिता के घर पहुँची तो उन्हें बड़ा धक्का लगा! क्योंकि उन्होंने देखा कि सिर्फ उनकी माता को छोड़कर कोई भी अन्य उनसे आदर और प्रेम के साथ ना तो मिल रहा है और ना ही बातें कर रहा है! वहाँ माता सती को अहसास हुआ कि जैसे उनकी बहनों एवं सगे संबंधियों सहित सभी की निगाहों में उनके प्रति एक प्रकार का तिरस्कार का भाव था! एक प्रकार से आयोजन में उपस्थित सभी लोग उनसे मुँह फेरे हुए थे। इतना ही नहीं अपितु उनकी बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे! वहाँ केवल एक उनकी माता ही ऐसी थीं जिन्होंने उन्हें प्यार व स्नेह से गले लगाया।
अब सती को अनुभव हो रहा था कि वहाँ आकार बड़ी गलती की! अपने प्रति अपने ही परिजनों द्वारा किए जा रहे इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने अपने पिता का व्यवहार भी अपने पति के प्रति बहुत तिरस्कारपूर्ण देखा यहाँ तक कि उनके पिता प्रजापति दक्ष ने देवधिदेव शिव के प्रति अनेक अपमानजनक शब्द भी कहे एवं यज्ञाहुति देते समय दक्ष ने सभी देवों को यथायोग्य उनका यज्ञ-भाग प्रदान किया किन्तु भगवान शंकर का नाम तक नहीं लिया। यह सब देख – सुनकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। अब उनका मन कह रहा था कि उन्होंने भगवान शंकरजी की बात न मानकर बहुत बड़ी गलती की है।
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वे पिता द्वारा अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को वे सह न सकीं एवं क्रोध मिशित दु:ख से अंततः उन्होंने अपने उस सतीरूपी शरीर को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।
जब इस सम्पूर्ण दुःखद घटना के बारे में भगवान शिव को ज्ञात हुआ तो दक्ष द्वारा अपमानित होकर सती द्वारा किए गए प्राणान्त से क्रुद्ध हो उन्होंने गणों को भेजकर प्रजापति दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
शास्त्र कहते हैं कि उन्हीं सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय यहाँ पुत्री रूप में जन्म लिया। शैलराज हिमालय के यहाँ पैदा होने के कारण ही वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुर्ईं। आदि शक्ति माँ दुर्गा का प्रथम स्वरूप के रूप में भक्त ‘माँ शैलपुत्री’ के रूप में पूजते हैं।
मंत्र :
ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥
Om Devi Shailaputryai Namah॥
प्रार्थना मंत्र-
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
Vande Vanchhitalabhaya Chandrardhakritashekharam।
Vrisharudham Shuladharam Shailaputrim Yashasvinim॥
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स्तुति :
या देवी सर्वभूतेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
भावार्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ शैलपुत्री के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।
Ya Devi Sarvabhuteshu Maa Shailaputri Rupena Samsthita।
Namastasyai Namastasyai Namastasyai Namo Namah॥
कवच :
ॐकारः में शिरः पातु मूलाधार निवासिनी।
हींकारः पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकार पातु वदने लावण्या महेश्वरी।
हुंकार पातु हृदयम् तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पातु सर्वाङ्गे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
Omkarah Mein Shirah Patu Muladhara Nivasini।
Himkarah Patu Lalate Bijarupa Maheshwari॥
Shrimkara Patu Vadane Lavanya Maheshwari।
Humkara Patu Hridayam Tarini Shakti Swaghrita।
Phatkara Patu Sarvange Sarva Siddhi Phalaprada॥
माँ शैलपुत्री की आरती :
शैलपुत्री माँ बैल असवार। करें देवता जय जय कार॥
शिव-शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने न जानी॥
पार्वती तू उमा कहलावें। जो तुझे सुमिरे सो सुख पावें॥
रिद्धि सिद्धि परवान करें तू। दया करें धनवान करें तू॥
सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती जिसने तेरी उतारी॥
उसकी सगरी आस पुजा दो। सगरे दुःख तकलीफ मिटा दो॥
घी का सुन्दर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के॥
श्रद्धा भाव से मन्त्र जपायें। प्रेम सहित फिर शीश झुकायें॥
जय गिरराज किशोरी अम्बे। शिव मुख चन्द्र चकोरी अम्बे॥
मनोकामना पूर्ण कर दो। घर सदा सुख सम्पत्ति भर दो॥
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