“आम की टोकरी” सोशल मीडिया पर ज्वलंत बहस का मुद्दा बनी हुई है… कक्षा एक की हिंदी की किताब “रिमझिम” में एक कविता है “आम की टोकरी”, उसे लेकर पूरी बहस चल रही है, सोशल मीडिया पर आजकल इसे लेकर जैस नया बवाल मचा हुआ है।
ये मुद्दा NCERT से सम्बंधित है।
पढाई-लिखाई वाला मुद्दा मिल जाने के वजह से पत्रकार, अभिनेता, लेखक, शिक्षाविद, समाज सुधारक, इन्फ़्लुएन्सर, गायक, कुक्कुर, बिलार, सब इस विषय पर टिका-टिप्पणी कर रहें हैं।
“आम की टोकरी” कविता आप इस लेख का साथ दिए गए तस्वीर में देख सकतें हैं,
मैं इस विषय पर कोई भी लेख नहीं लिखना चाह रहा था,
लेकिन जब सब के सब अपना विचार (जिनमें से ज़्यादातर एकदम बेबुनियाद हैं) देने लगे तो मुझे भी लगा की मैं भी आप सब के बीच अपना स्वतंत्र विचार रखूं,
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तो असल मुद्दा क्या है ?
अगर आप सोशल मीडिया के भसड़ से दूर हैं तो हो सकता है की अबतक इस विषय में कोई जानकारी न मिली हो आपको,
बताता चलूं की कविता “आम की टोकरी” की भाषा को लेकर विवाद हो गया है,
एक बड़े पक्ष का कहना है की कविता की भाषा सड़क-छाप है,
अश्लील है,
क्योंकि कविता में “छोकरी” और “चूसना” जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है,
जो की कक्षा एक के बच्चों के लिए बहुत ही “अन-एथिकल” है,
तो वहीं दूसरा समूह है जो कहता है, “अजी इसमें परेशानी क्या है”?
छोटे बच्चों को अब “अभिज्ञानशकुंतलम” तो पढाया नहीं जाएगा,
कविता तो आसान और सहज ही होनी चाहिए न ?
ताकि बच्चों को शब्द ज्ञान हो सके,
वो आसानी से याद कर सकें।
बस इन दोनों जमातों में पटका-पटकी होने लगा,
कोई इस कविता को सही कहने लगा तो कोई गलत,
और दोनों पक्षों के लोग एक दूसरों पर बाण चलाने लगे,
अपने-अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने लगे।
तो चलिए अब इस लेख की दिशा को उस ओर ले चलतें हैं जहाँ बिना पटका-पटकी किये भी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।
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“चूसना” और “छोकरी” शब्द गन्दा या सड़कछाप क्यों हो गया ?
क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि ये एक छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है!
एक बड़े धड़े को लगता है की छोटे बच्चों के उपर ऐसे शब्दों का “नेगेटिव” असर पड़ेगा,
वो जैसा शब्द सीखेंगे वैसा ही शब्द बोलेंगे,
साथ ही उनका यह भी कहना है की ये हिंदी भाषा का अपमान है,
ये दो कौड़ी के लेखकों को NCERT में जगह कैसे मिल गई ?
इससे तो हिंदी का सर्वनाश हो जायेगा.
मैं इस तर्क से पूरी तरह सहमत हूँ,
लेकिन विरोध करने वालों से मेरे कुछ सवाल हैं,
साहित्य समाज का दर्पण है,
क्या हर देश का साहित्य एक जैसा होगा ?
क्या हर राज्य का साहित्य एक जैसा होगा,
साहित्य में तो विविधता होती है न ?
हर लेखक की अपनी एक विधा होती है,
बाबा प्रेमचंद की अलग लेखन शैली थी,
बाबा नरेंद्र कोहली की अलग,
ठीक उसी प्रकार नए लेखकों की बात की जाए तो Yogi Anurag भईया की अलग लेखन शैली है और Atul Kumar Rai भईया की अलग,
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ठीक वैसे ही भाषा में भी अंतर देखा जाता है,
कोई खतरनाक “टाइप” का हिंदी इस्तेमाल करता है जिसका अर्थ गूगल भी नहीं बता पाता, तो कोई इतनी सहज भाषा का इस्तेमाल करता की एक कम पढ़ा-लिखा आदमी भी पढ़ कर मस्त हो जाता।
वर्तनी में भी तमाम तरह के फर्क देखे जाते,
आप गबन, गोदान, राग-दरबारी, आदि तमाम किताबें पढेंगे तो पाएंगे की बड़े-बड़े लेखक जान बुझ कर लेखन शैली को रोचक बनाने के लिए गलत वर्तनी का इस्तेमाल करते हैं, व्याकरण की गलतियाँ भी बड़े-बड़े लेखकों में देखी जाती हैं।
राजस्थान में छोरा-छोरी एक आम भाषा है, जैसे की वृन्दावन में लल्ला-लल्ली, ठीक वैसे ही छोकरा-छोकरी भी यूपी-बिहार के तमाम ग्रामीण क्षेत्रों में बोले जाते हैं, लौंडा-लौंडिया भी कई बुजुर्गों (हरियाणा में) के मूंह से अक्सर हम-आप सुन ही लेते हैं।
तो क्या ये सब भाषा सडक-छाप है ?
अश्लील है ?
नहीं,
ये तो साहित्य और शब्दों का विस्तार है,
आप बच्चों को सिर्फ सम्पादकीय छाप भाषा ही सिखाना चाहते हैं क्या ?
ऐसे तो विस्तृत साहित्य संकुचित हो जायेगा, तमाम शब्द विलुप्त हो जायेंगे, कक्षा एक का बच्चा भारी-भरकम शब्दों को कैसे संभाल पायेगा ?
जिस दौर में ‘दीदी’ सिकुड़ कर ‘दी’ हो गई, और ‘पिता जी’ हो गये पोप्स,
उस दौर में अगर छोटे बच्चे गावं-देहात के शब्दों से रूबरू हो रहे तो इसमें दिक्कत क्या है ?
क्या दिक्कत यह है की छोकरी शब्द कम पढ़े-लिखे लोग इस्तेमाल करते ?
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गावं-देहात के लोग इस्तेमाल करते ?
क्या यही पैमाना है शब्दों के स्तर मापने का ?
इस हिसाब से तो AC कमरे में बैठ कर बोले जाने वाले शब्द महान होने चाहिए,
Twitter पर लिखे जाने वाले शब्द महान होने चाहिए,
कोई भी शब्द अश्लील है या महान इसका फैसला क्या उसके बोलने वाले समूह को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए ?
मेरे हिसाब से छोकरी शब्द में कोई बुराई नहीं है,
यह एक आंचलिक शब्द है जो गावं-देहात में सामान्य रूप से बोला जाता है,
बालिका, लड़की, कन्या, गर्ल, छोरी, छोकरी, लल्ली, लौंडिया यह सब एक ही हैं,
बस जगह-जगह का फेर है,
इसका मतलब यह नहीं की आप किसी भी शब्द को सडक-छाप घोषित कर देंगे,
शायद आपका बुद्धि साहित्य को लेकर संकुचित है,
शायद आप बड़े-बड़े संपादकों के लेखों को ही ‘हिंदी माँ’ की असली सेवा मानते हैं,
मगर ये आपकी विचारधारा है,
आपको दूसरों के संस्कृतियों और शब्दों का सदैव सम्मान करना चाहिए,
इसी से हिंदी साहित्य का सम्मान और विस्तार होगा…
अब आते हैं “चूसने” पर…
कविता में “चूसने” शब्द पर भी खूब जोर दिया है साहित्य के जानकारों ने,
उन्होंने इसे अश्लील और गन्दा कहा है,
तो भाई अक्षय कुमार ने तो मोदी जी से “ऑन कैमरा” पूछ लिया था कि “आप आम काट कर खाते हैं या चूस कर” ?
आप जो इस लेख को पढ़ रहें हैं उनमे से अगर किसी से भी मैं बोलूं की “आम चूस कर खाना पसंद है मुझे” यह पंक्ति क्या अश्लील है ?
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आप बोलेंगे नहीं…
क्योंकि आम तो चूस कर ही खाया जाएगा ?
गन्ने को चूस कर ही तो खाया जा सकता है ?
तो चूसना कोई अश्लील शब्द कैसे हो सकता है ?
अश्लील इसलिए है क्योंकि भोजपुरी समाज के कुछ दो-कौड़ी के गायकों ने इसे अश्लील बना दिया है,
लेकिन आप तो पढ़े-लिखे सभ्य समाज का हिस्सा हैं,
आपको इतना तो मालूम होना चाहिए था की उस भोजपुरी गाने में जो चूसना है वो इस कविता के चूसने से कितना अलग है…
आप यहाँ गलती कर दिए,
और इस चूसने को भी अश्लील मान बैठे,
असल में अश्लील यह शब्द नहीं आपकी बुद्धि है जो चूसना शब्द सुनते ही कुछ ऐसा सोच लेती है जो उसे बेहद घिनौना और गंदा लगता है…
तो विरोध “चूसने” शब्द का नहीं अपने बुद्धि का करना चाहिए!!
मैं कोई साहित्यकार तो नहीं हूँ लेकिन मुझे इस कविता में कोई भी अश्लीलता या अभद्रता नहीं नजर आई…
कविता सहज है,
आसान है,
बच्चों को गाँव-देहात के शब्दों से परिचित करा रही है,
साथ ही साथ बाल मजदूरी जैसे विषयों पर बच्चों का ध्यान भी ले जा रहा है…
एक और भीड़ है,
जो कह रही है की इस कविता के माध्यम से बच्चों के मन में बाल मजदूरी के प्रति असंवेदनशीलता आएगी इसलिए इस कविता को तत्काल किताब से हटा देना चाहिए…
यह विषय पेचीदा है और मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है,
इसलिए मैं इस विषय पर लिखने योग्य नहीं हूँ,
बेशक NCERT को एक टीम गठित करके यह पता लगाना चाहिए,
और अगर कविता “आम की टोकरी” वाकई में बाल-मजदूरी के खिलाफ असंवेदनशीलता पैदा कर रही हो तो उसे तत्काल किताब से हटा देनी चाहिए…
परन्तु प्रथम दृष्टया यह कविता बेहद सहज और स्वीकार्य है,
मेरे अंदर ऐसी कोई भावना नहीं आई,
अगर बच्चों के अंदर आ रही है तो इसकी जांच करना चाहिए…
यह लेख अब अपने आखिरी पड़ाव पर है,
अब मैं अनुरोध करूंगा उन सभी लोगों से जो बिना कुछ सोचे-समझे इस मुद्दे पर कुछ भी बेबुनियाद लिख-बोल रहें हैं…
आज ही जनसत्ता अख़बार के सम्पादकीय पन्ने पर सुधीश जी ने “पेल दिए” शब्द का प्रयोग किया है…
यह शब्द पूर्वांचल वालों के लिए बेहद अजीब हो सकता है,
लेकिन मेरे अवध-कानपुर साइड के तमाम दोस्त इसे हर लाइन में दो बार बोल देते हैं,
दोस्तों हिंदी साहित्य बहुत फैला हुआ है,
इसका आकलन कर पाना आसान नही है,
शब्द अश्लील इस्तेमाल के वजह से होते हैं,
अश्लीलता पर चिंता करने के लिए तमाम ऐसे विषय हैं,
जहाँ वाकई में आप सब क्रांतिकारियों की जरूरत है,
तो प्लीज़ आशुतोष राणा जी या किसी अन्य सलिब्रिटीज को देख कर आप भी ‘हिंदी माँ’ के पतन का हल्ला मत मचाइए…
अभी लड़ाई बहुत है,
कई लोग तो अब हिंदी को भी नई वाली हिंदी और पुरानी वाली हिंदी में बाँट दिए है!!!
बंटवारा नही है ये,
बल्कि विस्तार है.
(जो विचारों से सहमत नहीं हैं वो कमेंट बॉक्स में मुझे गरिया सकतें हैं, जो सहमत हैं वो लेख को आगे बढ़ा दें)