‘मारवाड़ी’ इस शब्द को सुनते ही, लोगों के मन में इस शब्द के प्रति सवाल पैदा होता है कि “मारवाड़ी कौन होते हैं” ? इस एक मारवाड़ी शब्द में राजस्थान के रेगिस्तानों के व्यापारी समूह का इतिहास छुपा है, पहले इसमें अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल और सरावगी/Saraogi जैसे प्राथमिक समूह शामिल थे। बाद में इसमें खंडेलवाल और पोरवाल जैसी अन्य राजस्थानी व्यापारिक जातियाँ भी शामिल होती गईं। अधिकांश मारवाड़ी मारवाड़ जिले से नहीं आते हैं लेकिन मारवाड़ का सामान्य उपयोग पुराने मारवाड़ साम्राज्य के संदर्भ किया जाता रहा है जो आज भी बदस्तूर जारी है।
मारवाड़ी, राजस्थान के रेगिस्तानों से उठ कर पूरे भारत के भू- भाग पर फैल जाने वाला वो साहसी समुदाय है जो जोख़िम उठाने का साहस रखता है। बल्कि यूँ कहें कि जोख़िम उठा लेने की कला को विकसित कर चुका है।
मारवाड़ी उन्नीसवी सदी में ही भारत के पूर्व, उत्तर, मध्य प्रदेश के गाँवों में रहने लगे थे। भारत के आंतरिक व्यापार को अपने नियंत्रण में इन्होंने इसी सदी में ले लिया था।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद मारवाड़ी विशेषकर कारखानों में निवेश की तरफ़ बढ़ गए और इसके फलस्वरूप वे आज देश के लगभग आधे निजी कारखानों पर अपना आधिपत्य रखते हैं।
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उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यापारी समुदायों ने पहला सूती कारखाना मुम्बई और अहमदाबाद में शुरू किया जिनमें पारसी, खोजा, भाटिया और जैन बनिया प्रमुख थे। मारवाड़ी यूँ तो देर से आए, प्रथम विश्व युद्ध के बाद, लेकिन ये अत्यंत सफ़ल रहे।
मारवाड़ी मारवाड़ से पहुँचे, जो पुराना जोधपुर में है। सफ़ल व्यापारी परिवार छोटे शेखावटी भाग से आया जो पुराना बीकानेर और जयपुर राज्य में है। ये लोग अधिक्तर जाति से बनिया होते हैं या फिर जैन या वैष्णव हिन्दू।
सदियों तक मारवाड़ी बैंकर रहे और भूमि व्यापार को आगे बढ़ाने में मज़बूत वित्तीय सहायता करते रहे।
मुगलों के समय में भी इन लोगों ने राजकुमारों को वित्तीय सहायता दी।
ब्रिटिश साम्राज्य में मारवाड़ियों का पलायन अपने चरम पर था जब इन्होंने भारत के हर कोने में स्वयं को स्थापित किया और इसमें रेलवे ने इनके काम को बढ़ावा दिया।
ताराचंद घनशयाम दास जैसे मारवाड़ी कुशल और सफ़ल व्यापारी थे जिनकी व्यापारिक क्षमता असीम थी। बिड़ला भी इनसे जुड़े होने पर गौरवान्वित होते थे। इनकी शाखाएं बॉम्बे और कलकत्ता के बंदरगाहों से लेकर गंगा के किनारों तक विस्तृत थीं।
कलकत्ता में इन्हें बेहतर उपलब्धियां प्राप्त हुईं। उन्हें पता लग चुका था कि यही वो जगह है जहाँ अच्छा पैसा कमाया जा सकेगा। रामदत्त गोयन्का ऐसे ही एक सर्राफ थे, जो कलकत्ता 1850 में आ गए। उन्होंने एक मारवाड़ी फर्म में क्लर्क की नॉकरी कर ली और फिर प्रमुख अंग्रेजी फर्म में उनका हस्तक्षेप होने लगा। इसी तरह नाथूराम सर्राफ रामदत्त गोयन्का के फर्म में पहले क्लर्क की नॉकरी करते हैं और फिर ब्रिटिश कंपनियों में बनिया का काम करने लगते हैं।
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वे शेखावटी से आने वाले, पलायन करने वाले लोगों के लिए हॉस्टल खोलते हैं जो मुफ़्त में सुविधाएं देता था। इन हॉस्टल्स पर जी॰ डी॰ बिड़ला कहते थे कि बहुत सारे लोगों के व्यापारिक करियर की शुरुआत इन्हीं हॉस्टल्स से हुई। रात के समय युवा अपरेंटिस इन हॉस्टल्स में अपने व्यापारिक अनुभव साँझा करते, कहानियाँ सुनाते, लाभ और नुकसान की चर्चा होती और ऐसी ही कुछ कहानियाँ यादगार होतीं।
ये वो कहानियाँ थीं, जो कहीं लिखी नहीं गईं, कहीं उध्दृत नहीं हुईं, क्योंकि इस समुदाय के पास कहानियाँ लिखने का समय नहीं था। उनके लिए ये जीवंत अनुभव उनकी थाती थे, जो वे अपनी आने वाली पीढ़ी को दिया करते थे। यह कहानियाँ एक तरह से हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के केसेस की श्रृंखला रहीं होंगी, जो हार्वर्ड गए बिना भी, अपने समुदाय में अमर हो चुकी हैं।
दिल्ली-कलकत्ता रेलवे ने 1860 में कलकत्ता की तरफ होने वाले पलायन को तेज़ कर दिया और सदी के अंत तक मारवाड़ी जूट और कपास के व्यापार में अग्रणी थे।
मारवाड़ियों की सफलता का कारण उनके समाज में प्रभावी सपोर्ट-सिस्टम का होना है। जब कोई मारवाड़ी व्यापार पर निकलता है, तो उसके पीछे उसका पूरा परिवार उसके बच्चों और पत्नी की सुविधा, स्वास्थ्य का ख्याल रखता है। बाहर, व्यापार की राह में उसे रहने की जगह और भोजन बासा में उपलब्ध हो जाता है, जो उस स्थान पर रहने वाले मारवाड़ी समुदाय का सामूहिक प्रयास होता। जी॰ डी॰ बिड़ला के दादा, शिव नरायन ऐसे ही बासा में रहे, जब वो 1860 में पहली बार बॉम्बे आए।
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मारवाड़ी को अगर धन की आवश्यकता होती है, वह दूसरे मारवाड़ी व्यापारी से उधार लेता है, जिसकी यह अलिखित समझ के तहत सांझेदारी रहती है कि आवश्यकता होने पर कर्ज़ चुका दिया जाएगा, फिर भले ही वह आधी रात क्यों न हो। वर्ष के अंत में सारा ब्याज़ समझ लिया जाता। मारवाड़ी के बेटों और भतीजों को दूसरे मारवाड़ी व्यापारी अपने पास रख कर व्यापार के गुर सिखाते, और इस तरह से उनकी व्यापारिक कौशल को धार मिलती जाती।
कलकत्ता के ब्रिटिश व्यापारियों को जी॰ डी॰ बिड़ला फूटी आँख नहीं भाते थे, क्योंकि उन्होंने पूरे पटसन के व्यापार को अपने नियंत्रण में ले लिया था और अपनी इच्छानुसार यूरोपीय मिलों से पटसन की कीमत तय करते थे। इसी प्रकार डालमिया जो 1917 में कलकत्ता आए, उन्होंने लंदन में चाँदी के कीमतों को ऊँचा कर अपने अनेकों अंग्रेज प्रतिद्वंदीवियों को धराशायी किया।
और फिर आते हैं आदित्य बिड़ला, जिन पर चर्चा होगी अगली कड़ी में……..
क्रमशः……..