तैमूर और जहाँगीर | गाज़ी का अधूरा ख्याब और लौंडी का अफसाना

लेख का शीर्षक पढ़कर मन में सवाल पैदा हुआ होगा कि ‘तैमूर और जहाँगीर (Timur and Jahangir)’ का नाम एक साथ क्यों ? तो आपको याद आना चाहिए कि वर्तमान में ये ‘तैमूर और जहाँगीर’ नाम सैफ अली खान और करीना खान (कपूर) के बेटों के हैं!!

सैफ अली खान और करीना खान (कपूर) के पहले बेटे का नाम तैमूर रखे जाने के बाद अब दूसरे बेटे के ‘जहाँगीर’ नामकरण को लेकर बड़ी चर्चा है।

मुझे सैफ द्वारा  तैमूर और जहाँगीर निकालना समझ आता है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप के हिंदुओं का शासक होना और हिंदुओ को गुलाम समझना, यह सैफ अली खान के डीएनए में है। उसकी विरासत ‘गज़वा-ए-हिन्द‘ की जेहनियत से जुड़ी है। उसकी नसों में वह अफगानी इस्लामिया खून आज भी दौड़ रहा है जिसके के लिए हिन्दू काफिरों पर अपना मजहब मुसल्लत करना व उन पर हुक्म करना, आसमानी फरमान है।

सैफ के पूर्वज क्वेटा(उस वक्त अफगानिस्तान में) के थे और इस्लाम के प्रसार में लगे थे। आज के भारत मे इनका आना 15 वी शताब्दी में हुआ था। जब दिल्ली के अफगानी सुल्तान बहलोल लोदी ने उसके पूर्वज, सलामत खान भड़ैंच को दिल्ली के आसपास के मेवाती लोगों को काबू करने के लिए बुलाया था।

अफगानों के बाद जब मुगल आये तो इस सलामत खान ने मुगलों को चढ़ता सूरज समझ, अफगानियों से किनारा कर लिया और बाबर की बादशाहत कबूल कर ली। उसके बाद से ही इस परिवार का एक ही मूल मंत्र रहा है की जो भी शक्तिशाली है या जो भी दिल्ली की गद्दी पर बैठा है उसको अपनी सेवा देना।

19 वी शताब्दी के आते-आते इस परिवार ने यह समझ लिया था कि भारत मे नई शक्ति अंग्रेज है और देर सबेर दिल्ली पर अंग्रेज हुक्मरान ही बैठेंगे, इसलिये इनके एक पूर्वज अलफ खान, परिवार सहित, तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के कमांडर इन चीफ लार्ड जेरार्ड लेक को सलामी बजा आये और अपने परिवार की सेवाएं समर्पित कर दी। इस परिवार ने अंग्रेजों की तरफ से होलकर और मराठों से युद्ध किया और इसके इनाम स्वरूप लॉर्ड जेरार्ड लेक ने 1804 में उनके बेटे फैज तलब खान को पटौदी की जागीर दी। उस के बाद से ही 137 वर्ग किलोमीटर की पटौदी की इस जागीर में नवाब पैदा होने लगे।

जब भारत 1947 मे स्वतंत्र हुआ तब पटौदी के नवाब इफ्तिखार अली खान थे जो कि उस समय क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी थे और भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान भी थे।

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इस पटौदी रियासत का 1948 में जब भारत मे विलय हो गया तब भी इस परिवार ने अपनी खानदानी परिपाटी नही छोड़ी और दिल्ली के नए शासक भूरे अंग्रेज जवाहर लाल नेहरू को शीशे में उतारने में पीछे नही रहे।

गंगा जमुनी तहजीब और सेक्युलरिज़्म की नई परिभाषा गढ़ते हुये भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो विशेष रूप से मुस्लिम अशरफिया वर्ग के प्रति संवेदनशील थे और वे इस पटौदी परिवार से कितना करीब थे इसका पता इस बात से लगता है, कि जब जनवरी 1952 में इफ्तिखार अली खान की सिर्फ 42 वर्ष छोटी आयु ही में पोलो के खेल में घायल हो कर अकाल मृत्यु हो गई थी, तो उस समय हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री भूरे अंग्रेज जवाहर लाल नेहरू ने, इफ्तिखार अली खान की सिर्फ 37 वर्ष में विधवा हुई साजिदा सुल्तान, जो नवाब भोपाल की बेटी भी थी, को लुटियंस दिल्ली में, एक ‘समाजसेविका’ के रूप में त्यागराज मार्ग पर एक बंगला आवंटित कर दिया था। इसके बाद से 2003 तक (जब तक साजिदा सुल्तान ज़िंदा रही),इस परिवार का केंद्रबिंदु, यही लुटियंस बंगला रहा।

मुझे सैफ अली खान के परिवार के इतिहास को इतना विस्तार से इसलिये बताना पड़ा ताकि लोग, सैफ अली खान की मानसिकता व अपने बेटों का नाम तैमूर और जहाँगीर रखने के पीछे के उसके मनोविज्ञान को समझ सके।

वो आज भी अफगानिस्तान से उतर, भारत को लूटने और काफिरों (हिंदुओं) पर राज करने की इस्लामिक कबीलाई मानसिकता को ओढ़े हुये है। उसके अवचेतन मन मे यह बात जड़ पकड़े हुए है कि हिंदुओं का स्त्रीवर्ग उनकी लौंडी है और उनको गुलाम बना उनपर राज करना, उसका जन्मसिद्ध अधिकार है।

यहाँ यह उत्सुकता अवश्य होती है कि सैफ की मानसिकता और उसके अवचेतन मन के मनोविज्ञान को तो समझा जा सकता है, लेकिन करीना कपूर का तैमूर और जहाँगीर की माँ बनने का मनोविज्ञान क्या है?

कोई हिन्दू स्त्री स्वतः एक बांदी, एक लौंडी बन, अपने बेटों के हिंदु-हन्ता प्रतीकों से हुये नामकरण से कैसे सहज हो सकती है?

मैने इसपर काफी विचार किया और पाया कि हिंदुओं में यह करीना कपूर कोई अपवाद नही है बल्कि यह हिन्दू मुस्लिम का झालमेल बहुत पुराना है।

भारत मे हिंदुओं को मुसलमान बनाना या फिर दिल्ली में मुगलों का जब तक ह्रास नही होगया, शासकों के प्रश्रय में जबरन धर्मांतरण कराया जाना होता रहा है। लेकिन भारत की मुख्यभूमि में यह कभी भी सामाजिक स्तर पर स्थापित नही हो पाया था।

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इसके विपरीत भारत का वह भाग, जहाँ से हिन्दू स्वयं शनै-शनै विस्थापित हुआ है, वहां इसका समाजीकरण जरूर हुआ है।

मेरा अनुभव रहा है की अखंडित भारत के पश्चिमोत्तर भाग व उत्तर में काश्मीर के हिंदुओं में, अपने इस्लामिक हंताओ के प्रति विशेष अनुराग और उनके साथ सहज रूप से सहभागिता से रहने की कल्पना का रोमांस ज्यादा पाया जाता रहा है।

भारत के बंटवारे के बाद विस्थापित हुये हिंदुओं में एक ऐसा वर्ग भी रहा है जो अपनी जड़ों को पाकिस्तान के गाँवों, कस्बों और शहरो में सिर्फ ढूंढता ही नही है, बल्कि उसके रोमांस में कैद, गंगा जमुनी तहजीब को वहां उतारता भी है। वो शताब्दियों से स्वयं को अफगानिस्तान से सिमटते-सिमटते, पूर्व दिशा की ओर खिसकते-खिसकते, अपनी खोई मिट्टी का दोष, अंग्रेजों और चंद राजनीतिज्ञों पर डाल देता है लेकिन वह कभी अपने हंताओ पर प्रश्न नही करता है।

1970/80 के दशकों में एक से एक बुद्धजीवियों को पढ़ा व सुना है जो अपना बचपन, अपनी जवानी को पाकिस्तान की खुशनुमा वादियों में ढूंढते थे।

वे अपनी पुरानी यादों में खो, न जाने कौन-कौन से जुम्मन चाचाजानो, फरीदा चाचीजानो, तबस्सुम आपाओं और बाज़ीयों को फरिश्ता बना देते थे। उनकी बातों से यही लगता था कि जैसे वे स्वर्ग में थे और 1918 से 1947 के बीच वहाँ हिंदुओं के विरुद्ध हुये अत्याचार, दंगे और इस आक्रमकता के कारण वहाँ से हिंदुओं का धीरे-धीरे विस्थापित होना, कोई वास्तविकता न हो कर बस कोई दुर्घटना थी।

यही सब कश्मीरी पंडितों का भी हुआ है। जबतक 1991 से घाटी से भगाए नही गये तब तक 370 का समर्थन करते रहे। जो इनके पूर्वजों के हन्ता थे और बाद में उनके स्वयं के हुये, उन्हीं के साथ खान-पान बोली पर गलबहियां करते रहे और शेष भारत के हिंदुओं पर श्रेष्ठता का भाव रखते रहे।

आज भी कई कश्मीरी पंडित मिल जाएंगे जो अपने हंताओ पर कभी उंगली नही उठाते है, उनका आज भी रोमांस, उसी काल खंड में अटका हुआ है।

मुझे ऐसा ही कुछ, करीना कपूर को विरासत में मिला लगता है। वह जिस कपूर खानदान से है, उसकी जड़े ब्रिटिश राज में जमी थी।

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भारत मे तो इस खानदान की पहचान पृथ्वीराज कपूर से बनी, जो अखंड भारत के शहर लायलपुर, पंजाब (आज का पाकिस्तान का फैसलाबाद शहर) में पैदा हुए थे और वही उनकी पढ़ाई लिखाई हुई थी।

उनके परदादा को दीवान की पदवी मिली थी और दीवान मुरली माल कपूर के नाम से जाने जाते थे। उनके दादा दीवान केशवमल कपूर वहां तहसीलदार थे और उनके पिता दीवान बशेश्वरनाथ कपूर, इंडियन इम्पीरियल पुलिस में अधिकारी थे।

पिता के पेशावर स्थांतरण के बाद परिवार, पेशावर चला आया, जहाँ आज भी उनकी हवेली खड़ी है।

यह कपूर परिवार, ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभावी व प्रतिष्ठित सेवक थे जो धन सम्पदा व सामाजिक प्रतिष्ठा से परिपूर्ण थे। लेकिन उसके बाद भी वहाँ, भारत के उस हिस्से में हिन्दू-मुस्लिम को लेकर समाज मे ऐसी स्थितियां बनने लगी थी कि 1928 में पृथ्वीराज कपूर को वह सब छोड़ कर, फ़िल्म और थियेटर में काम करने के लिए मुम्बई चले आये थे। उनके विस्थापन के बाद धीरे-धीरे पूरा खानदान अपना घर जयदाद छोड़ कर मुम्बई आगया था।

पृथ्वीराज कपूर के घर वालों के साथ ससुराल के लोग भी मुम्बई चले आये थे और उसमें उनके साले जुगुल किशोर मेहरा भी थे। जो फ़िल्म में अभिनेता थे लेकिन फिर बाद में मुम्बई रेडियो (बॉम्बे रेडियो) के स्टेशन डायरेक्टर बन गए थे।

यह साले साहब जुगल किशोर मेहरा, जो राजकपूर के सगे मामा थे, ने तीन शादियां की और वे सब मुस्लिम थी।

उनमें से एक नाम अल्लाहरखी था, उनसे हुई बेटी 1940-50 की मशहूर अभिनेत्री मुन्नवर राणा थी।

जुगल किशोर मेहरा ने तीसरी शादी उस ज़माने की मशहूर अभिनेत्री और गायिका अनवरी बेगम से की थी। 1947 में जब बंटवारा हुआ तो जुगलकिशोर मेहरा ने अनवरी बेगम के साथ रिवर्स माइग्रेशन किया और लाहौर, पाकिस्तान चले गए।

वहां, पृथ्वीराज कपूर के साले और राज कपूर के मामा, जुगल किशोर ने हिन्दू धर्म छोड़ कर इस्लाम अपना लिया और अपना नया नाम अहमद सुल्तान रख लिया। पाकिस्तान में, मेहरा उर्फ सुल्तान अहमद, पाकिस्तान रेडियो जॉइन कर लिया और वह वहाँ पर डिप्टी डायरेक्टर जनरल के पद तक पहुंचे। उसके बाद वो उच्च पद पर पाकिस्तान एयरलाइन्स में चले गये।

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मेहरा उर्फ अहमद सुल्तान की बीवी अनवरी बेगम की एक बेटी जरीना थी और उसने बाद में नसरीन नाम से हिंदी और पाकिस्तानी फिल्मों में काम किया था।

यह ज़रीन, राज कपूर की ममेरी बहन थी जिसकी बाद में शादी करांची के कालीन व्यापारी लियाकत गुल आगा से शादी हुई।

उस काल मे पाकिस्तान में यह बहुत मशहूर था कि राज कपूर की बहन की शादी करांची में आगा परिवार में हुई है।

इसी ज़रीन और आगा की बेटी है सलमा आगा, जो 80 के दशक में बी आर चोपड़ा की फ़िल्म की नायिका थी।

सलमा आगा का राजकपूर से भांजी का रिश्ता है और वह करीना कपूर की बुआ है।

मैं अब जब 70 और 80 के दशक की कुछ स्मृतियों को झझकोरता हूँ तो यह याद आता है कि उस काल मे जब राज कपूर के यहाँ कोई जश्न होता था तो ढेर सारे पाकिस्तानी मेहमान, कव्वाल, गायक महफ़िल की रंगत बढ़ाते थे।

उस समय मुझे कपूर परिवार का यह पाकिस्तानी प्रेम, बड़ा अजीब जरूर लगता था लेकिन मैंने उस समय इस पर कुछ मनन नही किया था क्योंकि तब कपूर खानदान की विरासत के छुपे हुये पहलुओं को बिल्कुल भी नही जानता था।

अब इन्हीं सब बातों को देख और समझ कर मुझे करीना कपूर समझ मे आती है कि किस गुलामी वाली मानसिकता के तहत उसने अपने बेटों के नाम तैमूर और जहाँगीर रखने स्वीकार किए होंगे!!

वह उस वातावरण में पैदा और पली बढ़ी हुई है जहां उसके खानदान ने इस हिन्दू-मुस्लिम झालमेल को सहेजा हुआ है।

ये निमित्त मात्र हिन्दू शेष रह गए है ये लायलपुर, पेशावर की जड़ो में रोमांस से लिपटे लोग हैं। ये वे लोग हैं जो पेशावर में खड़ी दीवान विशेश्वर नाथ कपूर की हवेली के साये में, अपने हंताओं के साथ सोने में रोमानियत ढूंढते हैं।

मैं यह मानता हूँ कि ये और ऐसे ही अपनी ज़मीन छोड़, पुराने ज़माने की रोमानियत में कैद लोग, कुछ भी हो सकते हैं लेकिन अब हिन्दू शायद बिल्कुल भी नही रह गये हैं।

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इसीलिए जहाँ सैफ अली खान के लिए बेटों को तैमूर और जहाँगीर नाम देना उसे उसके पुरखों के गज़वा-ए-हिन्द के लिए गाज़ी होने के किसी अधूरे ख्याव के पूरा होने के जैसा मानसिक सुख देता है तो वहीं करीना को कोई फर्क नही पड़ता क्योंकि वह एक गाज़ी की लौंडी से ज्यादा कुछ नही रह गई है।

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इस लेख के मूल लेखक Pushker Awasthi Pramath(Pushkker) जी हैं …..

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