‘नादिर शाह’ पहला फ़ारसी बादशाह ना था जिसने ‘कोहिनूर’ या सही शब्दों में कहें तो ‘कोह-ए-नूर’ यानि ‘रोशनी की पहाड़’ पर हाथ साफ़ किया था। ‘शाह तहस्माप’ वो फ़ारस का शाह था जिसने ‘हुमायूँ’ से ये हीरा हासिल किया था। किंतु तब ‘कोह-ए-नूर’ को ‘कोह-ए-नूर’ नाम से नहीं जाना जाता था। इस अद्भुत हीरे की कहानी महाभारत काल से शुरू हुई थी। तथ्यों के अनुसार महाभारत वर्णित स्यमंतक मणि ही वर्तमान का कोहिनूर या कोह-ए-नूर है।
इस शृंखला में कोहिनूर की कहानी को संक्षेप में ही समेटने की कोशिश की गई है। ये कहानी बड़ी विचित्र होने के साथ ही बहुत दिलचस्प है अनेक तरह के पेंचोंखम से भरपूर है। किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ या ‘स्यमन्तक’ मणि की दिलचस्प दास्तां यूँ तो आप सभी ने कभी न कभी सुनी या पड़ी अवश्य होगी लेकिन शायद टुकड़ों में, प्रस्तुत आलेख में कोहिनूर के अस्तित्व में आने से लेकर वर्तमान 2023 तक के समस्त इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से पाठकों के सामने लाने को कोशिश की गई है। Kohinoor का विस्तृत इतिहास होने के कारण उसे एक ही अंक में समेटना कठिन कार्य था, अतः इसे 3 अंकों में प्रकाशित किया गया है, आशा है प्रबुद्ध पाठक हमारी परेशानी को समझेंगे…..
इस गाथा को शुरू करने से पहले इतिहास के गलियारों में झांकना पड़ेगा, वहाँ से एक दृश्य देखें:
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“महाराजा ने अपने जीवन काल में कभी गौमांस का सेवन ना किया और ना कभी तंबाकू का ही स्वाद चखा। अपने अंतिम क्षण में महाराजा ने गुरुग्रंथ साहिब का पाठ सुना – गंगाजल से आचमन कर अपने अस्त्र आदि त्याग दिये। शरीर के स्नायुतंत्र साथ छोड़ रहे थे, महाराजा के पंडित भाई गोविंद राम ने महाराजा के कान में तीन बार राम नाम का जाप किया। महाराजा के प्राण पखेरू उड़ गये, उनकी खुली आँखें श्री विष्णु और लक्ष्मी जी की तस्वीर की ओर देखती पाई गई। उनकी भुजा पर बंधा ‘कोह-ए-नूर’ हीरा अपनी आगामी यात्रा के लिए अब तैयार था।”
ये था महाराजा रणजीत सिंह का अंतिम क्षण!
अब आगे आरंभ होती है ‘कोहिनूर’ की ऐतिहासिक कहानी
इस से पहले ‘कोह-ए-नूर’ की कहानी शुरू करें, तीन बातें ऐसी है जो लगभग हर भारतीय के दिमाग़ में कुलबुलाती है।
१- क्या ‘कोह-ए-नूर’ ही महाभारत काल की वो ही ‘स्यमन्तक’ मणि है जिसके साथ कृष्ण एवं उनकी पत्नी सत्यभामा का नाम जुड़ा है?
इस किवदंति की शुरुआत तब हुई जब ब्रिटिश कंपनी के कर्ता-धर्ता डलहौज़ी ने लार्ड थॉमस मैटकफ़ को ‘कोह-ए-नूर’ के इतिहास पर रिसर्च करने को कहा। मैटकफ़ ने अनेक भारतीय रत्नाकरों, सुनार आदि का इंटरव्यू ले एक पेपर लिखा जिसे आज भी ‘कोह-ए-नूर’ का आधिकारिक इतिहास माना जाता है। इस पेपर के अनुसार दिल्ली के सबसे पुराने और सबसे बड़े स्वर्णकार वंश के अनुसार ‘कोह-ए-नूर’ शतप्रतिशत ‘स्यमन्तक’ मणि है।
२- क्या ‘कोह-ए-नूर’ एक अभिशप्त अर्थात श्रापित रत्न है?
ये भी एक किवदंति है जो लगभग सत्य है। इस रत्न का धारक यदि पुरुष हो तो विपदा आदि आनी तय है। इस पर इस शृंखला में विस्तार से कवर करेंगे।
३- भारत सरकार को ब्रिटेन से ‘कोह-ए-नूर’ वापस लाना चाहिए।
आज़ादी से लेके 2016 तक अनेक प्रयत्न हुए- पीआईएल आदि फाइल की गई। ब्रिटिश सरकार से भारत सहित पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान एवं ईरान ने भी कहा ‘कोह-ए-नूर’ हमारी अमानत है अतः वो हमें वापस दो। ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार यदि ‘कोह-ए-नूर’ वापस दिया तो बाक़ी बहुत कुछ वापस देना पड़ेगा और ब्रिटिश म्यूजियम तो ख़ाली हो जाएगा।
2016 में भारत के सुप्रीम कोर्ट में भारतीय सरकार ने स्वीकार किया है कि ‘कोह-ए-नूर’ को अँग्रेज़ ज़बरज़स्ती नहीं ले गये अपितु तोहफ़े में महाराजा दलीप सिंह ने ब्रिटिश क्राउन को दिया था। अब यहाँ दिलचस्प बात ये है जब ये तोहफ़ा दिया गया उस समय महाराजा दलीप सिंह मात्र ग्यारह साल के एक छोटे बच्चे थे। क्या एक बच्चा किसी को इतना कीमती तोहफा देने की समझ रखता है एवं क्या बच्चे का तोहफ़ा दिया जाना मान्य है?
ख़ैर जो भी है, ना ब्रिटिश सरकार ये हीरा देगी और भारतीय सरकार तो ख़ैर मान चुकी है कि वो गिफ्ट में दिया था और गिफ्ट वापस नहीं लिए जाते है।
ये कहानी बड़ी दिलचस्प है और इत्मीनान से लिखी है। आनंद ले के एक कहानी रूप में पढ़िए। स्रोत आदि की परवाह ना करें। अगर कोई हिस्सा आपको अविश्वसनीय लगे तो उसे लेखक की कल्पना की उड़ान मान लीजिएगा।
महाभारत काल में द्वारका में यदुकुल के सत्राजित का उल्लेख आता है, जो भगवान भास्कर के परम भक्त थे। सत्राजित ने सूर्यदेव को प्रसन्न कर उनसे एक रत्न पाया था, उस समय उस रत्न को ‘स्यमन्तक मणि’ के नाम से जाना गया। इस मणि की दो विशेषता थी, पहली ये रोज़ आठ भार स्वर्ण देती थी – मतलब लगभग 75 किलो सोना। प्रथम दृष्टि में ये बात एक अतिशयोक्ति प्रतीत होती है। दूसरी बात कि जहाँ ये मणि होगी वहाँ मानसिक, शारीरिक संताप, कोई भी महामारी आदि नहीं पनपेगी। बाक़ी इस वरदान की टर्म्स एंड कंडीशंस क्लियरली डिफ़ाइनेड नहीं थी।
प्रभु श्री कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया कि वो समाज हित हेतु मणि महाराज उग्रसेन को दे दें। किंतु सत्राजित ने इंकार कर दिया। एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेनजित ने मणि धारण कर आखेट के लिये प्रस्थान किया। आखेट के दौरान एक सिंह ने उसे मार कर मणि हासिल कर ली। सिंह से वो मणि जामवन्त जी ने उसको मार कर ले ली। जब प्रसेनजित वापस नहीं लौटा तो सत्राजित पक्ष ने श्री कृष्ण पर आरोप लगाया कि कहीं उन्होंने मणि हेतु उसका वध तो नहीं कर दिया।
प्रभु ने इस लांछन को मिटाने हेतु वन में जाकर प्रसेनजित और सिंह की मुठभेड़ के चिन्ह पाये और वो जामवन्त जी की गुफा जा पहुँचे। वहाँ जामवन्त के साथ २१ दिन चले युद्ध के बाद जामवंत ने उन्हें पहचान और अपनी कन्या जाम्बवन्ती का विवाह उनके साथ कर वो मणि उपहार स्वरूप उन्हें दे दी। द्वारका वापस पहुँच श्री कृष्ण ने मणि सत्राजित को सौंप दी। अपनी भूल से शर्मिंदा हो उस समय सत्राजित ने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह प्रभु संग कर दिया। मणि भी देनी चाही किंतु प्रभु ने उसे स्वीकार नहीं किया।
लाक्षागृह कांड के बाद जब श्री कृष्ण और बलराम हस्तिनापुर चले गये तो द्वारिका में कृतवर्मा और अक्रूर जी के बहकावे में आकर शतधन्वा ने सत्राजित का वध कर मणि चुरा ली। श्री कृष्ण और बलराम जी के वापस लौटने पर शतधन्वा ने मणि अक्रूर जी को दे दी और ख़ुद वहाँ से भाग निकला। श्री कृष्ण ने एक मुठभेड़ में उसका वध कर दिया किंतु मणि उस से बरामद नहीं हुई। इस क्षण प्रभु और बलराम जी में मतभेद भी हुआ। बाद में प्रभु को अक्रूर जी के पास मणि होने का ज्ञात हुआ और अक्रूर ने वो मणि उन्हें ही दे दी।
ये कहानी पुराण आदि में विस्तार से बताई गई है। यहाँ कुछ बातें ध्यान देने योग्य है:
- वो मणि जिसने भी धारण की, वो मारा गया – सत्राजित, प्रसेनजित, शतधन्वा।
- मणि के चलते प्रभु श्री कृष्ण पर दो बार लांछन भी लगा। भाई बलराम जी तक ने उन पर संदेह किया।
- मणि ने यदि इतना स्वतः स्वर्ण उत्पन्न किया होता तो क्या वो स्वर्ण वन या गुफा में ऐसे ही पड़ा रह गया? अवश्य और कुछ क्रिया होगी, कीमिया या पारस पत्थर नुमा – अपने आप से स्वर्ण उत्पन्न नहीं होता होगा अपितु उसके लिए कुछ विशेष नियम आदि रहे होंगे।
- प्रभु के दो श्वसुर, सत्राजित और जामवन्त जी ने उन्हें मणि देनी चाही किंतु उन्होंने फिर भी स्वीकार नहीं की।
- मणि में सूर्यदेव का अहम रोल है जो जाम्बवन्ती पुत्र सांब तक जुड़ा है, मुलतान के सूर्य मंदिर द्वारा।
तो इस कहानी से ये बात तो साफ़ है इस मणि का असर काफ़ी घातक है- समाज में निंदा दिलाने लायक़ के साथ ही जानलेवा भी है। पुराण आदि में ये कहानी अक्रूर जी के पास मणि होने पर ही समाप्त हो जाती है उसके बाद आगे क्या हुआ इसक कहीं कुछ वर्णन नहीं मिलता है। शायद ऐसा भी कह सकते हैं कि महाभारत में कृष्ण के बाद यादवों की आपसी कलह/युद्ध में लगभग समस्त यादवों का नाश एवं द्वारका के समुन्द्र में डूबने का जिक्र है, अतः उसके बाद के इतिहास का कहीं कोई सूत्र प्राप्त नहीं होता।
फिर कुछ हज़ार वर्ष बाद कुछ विदेशी यात्री और अमीर ख़ुसरो इतने बड़े हीरे या मणि का वर्णन करते है जो ‘स्यमन्तक मणि’ से मिलता जुलता है। ध्यान रहे – ‘कोह-ए-नूर’ नाम मिलने में अभी कई सौ वर्ष का समय शेष है।
मध्यकालीन भारत में हीरे या मणि से जुड़े अनेक मिथक थे, जैसे – हीरे को किसी तरह से तोड़ा या काटा नहीं जा सकता। किसी स्त्री के तकिये के नीचे मणि रखने के बाद उसका प्रेम हासिल किया जा सकता है। ज़हरीले नाग आदि के निवास के इर्द गिर्द मणि मिलने की संभावना रहती है। ऐसे अनेक मिथक भारत में प्रचलित थे। एक तथ्य ये भी था पन्द्रहवीं शताब्दी तक केवल भारत में हीरे पाये जाते थे। इसके बाद ब्राज़ील और अफ़्रीका आदि में भी हीरों की खानें पाई गईं।
महाभारत काल के बाद स्यमन्तक मणि एक लोककथा या किवदंति बन कर रह गई। केवल इतना ज्ञात रहा कि मणि एक हीरा है जिस से अलौकिक प्रकाश फूटता है और साइज में एक मुर्ग़ाबी के अंडे के बराबर है। कुछ हज़ार वर्ष बाद मध्यकाल में विदेशी यात्रियों ने भारत के दौरे करने शुरू किए तो उन्होंने रत्न आदि से जुड़ी कुछ बातें नोट करनी और लिखनी शुरू की।
डा॰ ऑर्टो, अब्दुल रज़ाक़ समरकन्दी, तवेरनीयर, मानुची आदि ने अनेक मंदिर देखें जिन में देवियों की मूर्ति में नेत्र के स्थान में अमूल्य रत्न लगे पाये। इस विषय पर कई विस्तृत पोस्ट लिखी थीं कि किस प्रकार इन लोगों ने अयोध्या, मथुरा, काशी, विजयनगर आदि में ऐसी रत्न जड़ित मूर्तियाँ देखी। ऑर्टो गोलकुंडा के निज़ाम शाह के निजी ख़ज़ाने तक पहुँचा और उसने विवरण लिखा कि कितने कैरट के हीरे उसने देखे और ‘स्यमन्तक मणि’ से मिलता जुलता हीरा उसने सुना है किसी दक्षिण मंदिर में स्थित है।
रज़्ज़ाक ने विजयनगर एम्पायर का विवरण लिखते हुए कहा “यहाँ सब्ज़ी तरकारी की भाँति रत्न बाज़ार में बिकते है”। रज्जाक ने भारतीय महिलाओं को हूर की संज्ञा देते हुए मंदिर आदि का सजीव विवरण लिखा है।
क्या ये एक महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि महाराज ‘कृष्ण देव राय’ ने एक नाटक लिखा जाम्बवंत कल्याण, इस नाटक में श्री कृष्ण जी का युद्ध और स्यमन्तक मणि के प्राप्त होने का वृतांत है। एक बात स्पष्ट हो रही थी कि स्यमन्तक मणि दक्षिण के किसी राज्य में या किसी राजवंश के पास थी या वहाँ के किसी मंदिर में स्थापित।
इस बात पर मुहर लगाई अलाउद्दीन ख़िलजी के प्यादे लेखक और सेक्युलर समाज के जनक अमीर खुसरो ने। एक मंदिर की लूट के बाद ख़ुसरो ने वहाँ से लूटे गये हीरे रत्न आदि का ब्योरा लिखा। वो ‘अलाउद्दीन ख़िलजी’ ही था जिसने ‘काकतिया राजवंश’ से लूट में इस मणि से मिलता जुलता हीरा छीना। ये हीरा साइज और विवरण में ‘कोह-ए-नूर’ से मिलता था। ख़िलजी से लेके दिल्ली सल्तनत के ख़ज़ाने में ये हीरा रहा और फिर ‘बाबर’ और ‘लोदी’ युद्ध हुआ।
लोदी का ख़ज़ाना और अनेक रत्न आदि ग्वालियर के ‘महाराज विक्रमाजीत’ के पास था जिन से ये हीरा ‘हुमायूँ’ ने ले अपने अब्बा ‘बाबर’ को दिया। इस हीरे का उल्लेख ‘बाबरनामा’ में भी है। हीरे का उल्लेख ‘हुमायूँ’ की बीमारी वाली कहानी में भी है, जब सब पीर सूफ़ियों ने बाबर से सबसे क़ीमती वस्तु ‘कोह-ए-नूर’ को दान में देने को कहा किन्तु बाबर ने उनकी बात ना मानी। नतीजा, बाबर ख़ुद फ़ौत हो गया और हीरा हुमायूँ को विरासत में मिला। हुमायूँ बादशाह तो बना किंतु दर-दर की ठोकरें भी मुक़्क़दर में मिली।
अब तक कुछ ध्यान देने वाली बातें:
- महाभारत काल से मध्यकाल तक इस हीरे या मणि का कोई उल्लेख नहीं, कोई अभिशप्त कहानी नहीं। अनेक उल्लेख हालाँकि है जिस में दक्षिणी राज्यों में ऐसा विशाल अद्भुत हीरा मूर्ति में जड़ा हुआ है।
- मतलब किसी राजा आदि ने ये हीरा ख़ुद धारण नहीं किया। कदाचित् वे सब भारतीय लोकगाथा से भलीभाँति परिचित हो चले थे।
- भारतीय परंपरा और रत्न आदि का कोष तुर्की परंपरा से बहुत अलग है। हीरे को भारतीय राजा या ख़ुद धारण करते रहे है या मूर्तियों में जड़वाते रहे। तुर्की सुल्तान आदि रंगबिरंगी रत्न जैसे अनारी रूबी आदि के मुरीद थे और इन्हें अपनी पगड़ी आदि में खोंस कर रखते रहे। हीरों को ख़ज़ाने में पड़ा रहने का शग़ल था और ये बात औरंगज़ेब काल तक बखूबी चली।
- इस हीरे के अभिशाप का असर बाबर पर पड़ा और वो चार साल बाद खुदा को प्यारा हुआ।
अब कहानी का पड़ाव हुमायूँ तक आ पहुँचा है।
‘कोह-ए-नूर’ नाम अभी तक इस हीरे को नहीं मिला है, किंतु ये है वहीं हीरा जिसके पीछे दुनिया पागल थी।
कहते है जब बाबर को पहली बार ये हीरा मिला तो उसने अपने लुटेरे गैंग के एक्सपर्ट लोगों के साथ इस हीरे की क़ीमत लगाई, इस हीरे के मूल्य से ढाई दिन तक समस्त दुनिया को खाना खिलाया जा सकता है। हवा हवाई वाली बात और अनमोल हीरे की क़ीमत खाने में आंकने वाले लुटेरे भिखमंगे नरभोगी आदमी से और कोई आशा भी नहीं की जा सकती है?
ख़ैर बाबर की मौत के बाद इस हीरे को ‘बाबरी हीरा’ कहा जाने लगा। हुमायूँ के क़ब्ज़े में ये हीरा आया और अफ़ीमची हुमायूँ के दुर्दिन शुरू हुए। ‘शेर शाह सूरी’ से पिट कर जब हुमायूँ भाग रहा था तो उसके पास ये हीरा और कुछ और अनमोल रत्न थे। ‘महाराज मालदेव’ ने अपना जौहरी भेज उस से ये हीरा ख़रीदना चाहा किंतु हुमायूँ ने कहा – “ऐसे हीरे केवल तलवार से जीते जाते है”। फिर इस तलवार के धनी हुमायूँ ने फ़ारस जा कर ये हीरा और बाक़ी रत्न ‘शाह तहस्माप’ को दे सैन्य सहायता ली ताकि हिन्द पर फिर आक्रमण कर सकें।
फ़ारस के शिया मत के शाह ने ये हीरा अहमदनगर के सुल्तान को भेंट में एक ख़त समेत भेजा। सुल्तान को ख़त तो मिला किंतु ये हीरा नहीं प्राप्त हुआ, जिस दूत के साथ भेजा था उसने ग़बन कर ये हीरा ग़ायब कर दिया। ‘अकबर’ के ख़ज़ाने में ये ‘बाबरी हीरा’ नहीं था। इसकी ताकीद ‘अबुल फ़ज़ल’ ने की है। फ़ज़ल के लिखे अनुसार अकबर के पास जो सबसे बड़ा हीरा था उसका साइज इस बाबरी हीरे से आधा था। मतलब ये हीरा हुमायूँ से अकबर से पास ऑन नहीं हुआ था।
अब इस कहानी में एक दिलचस्प किरदार की एंट्री होती है- ‘मीर जुमला’। एक फ़ारसी आदमी जुमला जूतों का सौदागर था जो घर-घर जा कर जूते बेचता था। फ़ारस में ये आदमी कंगाल हो गया और भारत भाग आया और जुमला अहमदनगर आकर एक हीरा सौदागर के हियाँ नौकर लग गया। कुछ साल में वो ख़ुद एक अमीर हीरा व्यापारी बन गया। फिर गोलकुंडा के सुल्तान का वज़ीर बन ऐयाशी काटने लगा। ‘टेवरनीयर’ जुमला से मिला था अपनी किताब में जुमला के कारनामे भी उसने लिखे है।
गोलकुंडा के सुल्तान की माँ का चक्कर जुमला से चल गया, इस के तहत सुल्तान ने जुमला को सजा देनी चाही। किंतु जुमला दक्कन के मुग़ल सूबेदार ‘औरंगजेब’ की मदद से ‘शाहजहाँ’ के दरबार पहुँच गया। शाहजहाँ को जुमला ने बाबरी या ‘कोह-ए-नूर’ हीरा तोहफ़े में दे अपनी वफ़ादारी जताई और मुग़ल दरबार में अहम पद हासिल किया। कदाचित् जुमला के हाथ ये हीरा अहमदनगर के प्रवास के दौरान लग गया था और उसने अपनी अंटी में छिपाये रखा ।
शाहजहाँ ने इस अनतराशे हीरे को ‘मयूर सिंहासन’ में लगवा दिया, एक मयूर की कलगी में। ‘टेवरनीयर’ ने कदाचित् इस हीरे को ‘ग्रेट मुग़ल डायमंड’ कहा है और अपनी किताब में हीरों और मयूर सिंहासन का बड़ा सजीव वर्णन किया है।
कुछ बातें ध्यान देने वाली है:
- बाबर और हुमायूँ ने इस हीरे पर हाथ रखा, धारण किया। दोनों को दुर्दिन बीमारी आदि झेलनी पड़ी।
- अकबर और जहांगीर ने इस हीरे को अपने पास नहीं रखा। दोनों का राज्य निष्कंटक लंबा चला।
- शाहजहाँ के पास हीरा आया और कुछ वर्षों में उसका प्रिय लड़का दारा और शेष लड़के औरंगज़ेब द्वारा क़त्ल कर दिये गये। दारा का कटा सर तश्तरी में रखा शाहजहाँ ने ख़ुद देखा।
- औरंगज़ेब ने हीरा मयूर सिंहासन में लगवा रखा, ख़ुद धारण नहीं किया। किंतु वो ख़ुद जीवन के अंत तक दक्कन में पड़ा रहा।
- औरंगज़ेब के बाद के बादशाह जल्दी-जल्दी बदलते रहे, मारे जाते रहे। एक अपवाद था रंगीला का राज्य तीस साल चला किंतु उसने नादिर शाह का वो हमला झेला जिसे दिल्ली के इतिहास में सबसे रक्तरंजित समय माना गया है।
किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ की दिलचस्प दास्तां के दो अंक अभी बाक़ी है….
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