Kohinoor क्यों कहा जाता है ‘एक अभिशप्त हीरा’… ?

जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत है किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ या ‘Kohinoor’ की दिलचस्प दास्तां का दूसरा अंक:

अगर आपने किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ का पहला अंक नहीं पढ़ा है तो आप यहाँ क्लिक करके उसे पढ़ सकते हैं। पहले अंक में हम महाभारत काल में चर्चित हुई ‘स्यमन्तक मणि’ से लेकर कृष्ण, सत्यभामा, जामवंती के अलावा अलाउद्दीन खिलजी, बाबर, हुमायूँ तक के इतिहास पर लिख चुके हैं। आख़िर महाभारत से नादिर शाह तक कोहिनूर कैसे पहुँचा? क्या स्यमन्तक मणि ही Kohinoor है? आखिर कोह ए नूर के साथ अभिशप्त/श्रापित होने का विश्वास/अंधविश्वास कब और क्यों जुड़ा? इन सवालों पर इस लेख एवं अगले भाग में लिखा गया है।

अब गतांक से आगे….

‘नादिर शाह’ ने 1739 में दिल्ली में हमला किया उस समय ‘रंगीला’ मुग़ल बादशाह था। इस काल में दिल्ली सल्तनत पूर्ण रूप से ऐयाशी में डूबी हुई थी। रंगीला को बंधक बना ५७ दिन नादिर शाह ने दिल्ली में खूब लूट मचाई। आठ पुश्तों से जोड़ा हुआ मुग़ल ख़ज़ाना ख़ाली कर दिया। मयूर सिंहासन आदि सब लूट ले गया। उसके साथ आए दो आदमी अहम थे, पहला ‘अहमद शाह अब्दाली’ जो इस समय एक प्यादा मात्र था और दूसरा ‘मिर्ज़ा अहरवादी’ जो एक किस्सागो या इतिहासकार था।

इस मिर्ज़ा ने अनेक लूटे हुए रत्न आदि का उल्लेख किया है मसलन ‘कोह-ए-नूर’ और ‘दरिया-ऐ-नूर’ और ‘आईने-अल-हूर’। अजीब इत्तिफ़ाक़ है एक रूबी को हूर की आँख की संज्ञा दी गई थी, वो रत्न जो कदाचित किसी मूर्ति को खंडित कर क़ब्ज़ाया गया हो। नादिर शाह ने ‘कोह-ए-नूर’ कैसे हासिल किया, इसके बारे में ‘थॉमस मैटकफ़’ ने एक अजीब कहानी बतायी है।

इस हीरे अर्थात स्यमन्तक मणि का नाम कोह ए नूर कैसे पड़ा:

‘नूरबाई’ नामक दिल्ली की ‘तवायफ़’ पर ‘नादिर शाह’ बुरी तरह आसक्त हो गया और उसे फ़ारस ले जाने की ज़िद पर अड़ गया। नूर बाई ने नादिर शाह से कहा- यदि तुम्हें मुझ से अधिक अनमोल वस्तु मिल जाये तो क्या मुझे दिल्ली में रहने दोगे? शाह के हाँ कहने पर नूरबाई ने बताया मुग़ल बादशाह रंगीला ने ‘कोह-ए-नूर’ को अपनी पगड़ी में छिपा कर रखा हुआ है। नादिर शाह ने दिल्ली से जाते समय रंगीला से पगड़ी बदली और ‘कोह-ए-नूर’ हासिल कर लिया। हीरे को देख नादिर शाह की आंखे पलक झपकाना भूल गई और वो चकित होकर बोला – ‘कोह-ऐ-नूर’ मतलब ‘रोशनी का पहाड़’।

इस हीरे को एक नया नाम मिला और यहीं से इस हीरे का नाम ‘कोह-ए-नूर’ पड़ा। एक लुटेरे द्वारा दिया गया नाम आज पूरी दुनिया प्रयोग कर रही है, इस से विचित्र बात और क्या होगी।

फ़ारस वापस पहुँच नादिर शाह ने ‘कोह-ए-नूर’ को अपनी भुजा पर बांधना शुरू कर दिया और हीरे ने अपना असर बड़ी तेज़ी से दिखाया। एक दफ़ा नादिर शाह को उसके प्रिय घोड़े ने गिरा दिया जिस से नादिर शाह को काफ़ी शारीरिक चोट पहुँची। शाह मानसिक रूप से भी कमजोर हो रहा था उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही थी। हरम में घोड़े आदि हमेशा तैयार रखना, रोज़ाना बीस-तीस आदमियों को मरवाना उसका शग़ल बन रहा था। एक बार क्रोध में आ कर उसने अपने ही लड़के की आँखों में गरम सलाई घुसवा दी और बाद में बड़ा पछताया।

इस समय नादिर शाह के पास अहमद शाह अब्दाली भी था, उसका विशिष्ट अंगरक्षक और सबसे भरोसेमंद सिपहसलार। अंदरूनी विद्रोह के चलते एक दिन नादिर शाह को उसके अफ़सरान आदि ने मार डाला। हरम की मुख्य औरत ने ‘कोह-ए-नूर’ और कुछ और रत्न आदि अब्दाली को सौंप दिये। मयूर सिंहासन उर्फ़ तख्तेताऊस को कहा जाता है ये ईरानी लुटेरे तोड़ कर आपस में बाँट ले गये। कुछ कहते है ऑटोमैन सुल्तान को बेच दिया। नादिर शाह के लड़के शाहरुख़ की ‘कोह-ए-नूर’ के चक्कर में बड़ी बुरी गत बनाई गई।

नादिर शाह के अंत को छोड़ हम ‘कोह-ए-नूर’ के पीछे चलते है। अब्दाली ने अफ़ग़ानिस्तान में अपना राजतिलक करवाया और ‘दुर्रानी’ टाइटल ग्रहण किया। चौबीस साल के अब्दाली ने अपने आका नादिर शाह की तर्ज़ पर भारत में अनेक आक्रमण किए। पानीपत की लड़ाई के बाद अब्दाली ने अपनी भुजा पर बंधे ‘कोह-ए-नूर’ के साथ सरहिंद की सूफ़ी मज़ार पर दुआ पढ़ी किंतु ‘कोह-ए-नूर’ का श्राप उस से चिपक चुका था ।

अब्दाली को कोढ़ चिचियाने लगा था, उसकी नाक गलने लगी थी। नक़ली नाक लगाये अब्दाली जब वापस घर पहुँचा तो पाया उसकी नाक में कीड़े पड़ने लगे है। जब वो खाना खाता गली नाक से कीड़े उसके खाने में गिरते रहते। उसने यूनानी हिंदू अरब आदि तरीक़े से इलाज टोटके आदि करके देखें किंतु कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। शनै-शनै ये रोग उसके दिमाग़ तक पहुँच गया और पचास साल की आयु में अब्दाली ख़ुदा को प्यारा हुआ। ‘कोह-ए-नूर’ उसकी बाजू से बंधा था अतः असर तो दिखना ही था।

अहमद शाह के बाद उसका लड़का ‘तैमूर शाह’ नया बादशाह बना। वैसे तैमूर का राज्य बीस साल तक रहा किंतु हमेशा मोर्चे में वो व्यस्त रहा। क़द में छोटा तैमूर केवल नाम का अफ़ग़ान था, उसकी मुख्य बेगम मुग़ल शहज़ादी थी जिसे उसका बाप देहली से उठा कर लाया था। बीवी के बस में तैमूर अफ़ग़ान परंपरा से अधिक फ़ारसी परंपरा का मुरीद था और ये बात अनेक अफ़ग़ानी सरदारों को खटकती थी। भुजा पर ‘कोह-ए-नूर’ बांधने वाले तैमूर शाह को किसी अफ़ग़ानी ने ज़हर मिली शराब पिला दी और ४६ साल की उम्र में ये ख़ुदा को प्यारा हुआ। ‘कोह-ए-नूर’ का श्राप साथ नहीं छोड़ रहा था।

तैमूर शाह के २४ लड़के उसके मरने पर आपस में लड़े और कई सारे मारे भी गये। गद्दी मिली उसके एक लड़के ‘ज़मां शाह’ को। लड़ाई में ख़ज़ाना ख़ाली था तो ज़माँ शाह ने अपने दादा की तरह भारत पर फिर हमला बोल दिया। लेकिन इस बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे खदेड़ दिया। ‘कोह-ए-नूर’ का श्राप इस बार तेज़ी से काम कर रहा था। ज़माँ शाह को उसकी राजधानी काबुल में घुसने तक ना दिया और उसके एक वफ़ादार आशिक़ ‘शिनवारी’ ने क़ैद कर लिया। क़ैदखाने में शाह ने ‘कोह-ए-नूर’ को एक दीवार में छिपा दिया। शिनवारी ने उसे अंधा कर दिया और ‘कोह-ए-नूर’ माँगा। किसी तरह से शाह वहाँ से फ़रार हो कर रावलपिंडी आ पहुँचा जहाँ ‘महाराजा रणजीत सिंह’ ने उसे पेंशन और शरण दी। सात वर्ष की सत्ता भोग ज़मां शाह अंधा हो कर मरा।

उसके बाद नया शाह बना ‘शुजा’ उसे ‘कोह-ए-नूर’ कैसे हासिल हुआ और फिर महाराजा रणजीत सिंह तक कैसे पहुँचा ये आगे पढ़ें:

ध्यान देने वाली कुछ बातें:

  • नादिर शाह ने ‘कोह-ए-नूर’ भुजा पर बंधा और मानसिक रूप से संतुलन खो बैठा। अंत में अपने लोगों द्वारा साज़िशन क़त्ल हुआ।
  • अब्दाली को ‘कोह-ए-नूर’ मिला, उसने राज्य भी किया किंतु कोढ़ से पीड़ित रहा। पानीपत की लड़ाई जीती ज़रूर किंतु उसे हासिल क्या हुआ।
  • अब्दाली का लड़का तैमूर भी अल्पआयु में ज़हरखुरानी का शिकार हो कर मरा।
  • अब्दाली का पोता ज़माँ शाह ‘कोह-ए-नूर’ के चक्कर में अपनी आँखें गवाँ बैठा और एक शरणार्थी के रूप में मरा। ‘कोह-ए-नूर’ से जुदा होने के बाद वो कम से कम बच तो गया।
  • ज़मां शाह का भाई शुजा शाह बना और कैसे ‘कोह-ए-नूर’ ने उसकी तक़दीर में काँटे बोए- वो जानना दिलचस्प है।

महाराजा रणजीत सिंह की एंट्री हो चुकी है। अब तक भारत में अँग्रेजों का पदार्पण भी हो चुका था और वो भी इस हीरे पर आँखें गड़ाये बैठे गए थे, हीरे से संबन्धित हर रपट लगातार लंदन भेजी जा रही थी।

कहानी सुरसा के मुख की भाँति बड़ी हो रही है- आप हनुमान जी जैसा धैर्य बनाये रखें। कहानी में ट्विस्ट और टर्न अभी बहुत है।

उसके बाद नया शाह बना ‘शुजा’ उसे ‘कोह-ए-नूर’ कैसे हासिल हुआ:

‘शाह शुजा दुर्रानी’ नया बादशाह बना और उसने सबसे पहला काम किया अपने सिपाही भेजे ताकि वो ज़माँ शाह द्वारा छिपाया ‘कोह-ए-नूर’ ढूँढ निकाले। ‘कोह-ए-नूर’ एक क़ैदखाने की दीवार में छिपाया गया था, वहाँ से एक मदरसे के मौलवी ने उसे निकालकर उसे एक मामूली पत्थर की भाँति पेपरवेट के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। शाह शुजा के आदमियों ने हीरा ढूँढ निकाला और शाह शुजा ने उसे अपने हाथ पर बांधना शुरू कर दिया फिर वही पुरानी गलती। ‘कोह-ए-नूर’ ने तुरंत अपना कमाल दिखाना शुरू किया।

शाह शुजा बेहद क्रूर आदमी था – छोटी छोटी बात पर अपने लोगों के अंग भंग जैसे खस्सी करवाना, नाक कान कटवाना आदि उसका शग़ल था। एक समय था कि उसकी सेवा में सब नौकर ख़ुसरो आदि नकटे कानकटे या खस्सी थे। पाँच सालों में ही शाह शुजा को काबुल से भागना पड़ा- उसका भाई उसके विरुद्ध हो गया और उसके आदमियों ने उसके पागलपन के कारण उसका साथ नहीं दिया।

अपनी बीवी वफ़ा बेगम और ‘कोह-ए-नूर’ आदि छिपाए शाह शुजा लाहौर पहुँचा, जहाँ महाराजा रणजीत सिंह ने उसे पनाह दी। महाराजा ने उस से ‘कोह-ए-नूर’ के बदले सैन्य सहायता देने की पेशकश की किंतु शाह शुजा ‘कोह-ए-नूर’ से अलग नहीं होना चाहता था। उसने इंकार कर दिया और वफ़ा बेगम और अपनी लड़कियों को लाहौर छोड़ वो कश्मीर चला गया ‘अता मोहम्मद ख़ान’ से सैन्य सहायता माँगने। हीरा उसने वफ़ा बेगम को दे दिया था।

कश्मीर में शुजा को उसके वफ़ादार ने ही क़ैद कर लिया, कारण वो ही कि उसे भी ‘कोह-ए-नूर’ चाहिए था। इधर लाहौर में महाराजा ने वफ़ा बेगम से लाख कोशिश की कि वो हीरा उन्हें दे दे। एक प्रस्ताव भी दिया कि वो अपनी लड़कियों की शादी उन से कर दहेज में हीरा दे दे। वफ़ा बेगम ने इनकार कर दिया और कहा “यदि ज़बरज़स्ती करोगे, तो वो हीरे को पीस कर अपनी लड़कियों को खिला आत्महत्या कर लेगी”। महाराजा ने वफ़ा और उसके कुनबे की ख़ातिर में कोई कमी नहीं रखी।

वफ़ा ने महाराजा को एक डील दी, “मेरे शौहर शुजा को कश्मीर से छुड़ा कर लाओ और हीरा ले लो”। महाराजा ने तुरंत कश्मीर अपना दस्ता भेज शुजा को छुड़वा लिया, लाहौर भी ले आयें किंतु वफ़ा और शुजा अपने वचन से मुकर गये। हीरा देना स्वीकार नहीं किया। अब महाराजा ने अपना क्रूर रूप दिखाया।

महाराजा रणजीत सिंह तक कैसे पहुँचा:

वफ़ा और शुजा के जनानाखाना (महिलाएं) को एक हवेली में बंद कर महाराजा ने शुजा को एक पिंजरे में बंद कर गर्मी में एक छत पर रखवा दिया। शुजा के दस साल के लड़के को नंगे पैर छत पर धूप में खड़ा रखा। नाज़ुक अब्दाली का ये वंशज गर्मी झेल नहीं पाया और बेहोश हो गया। शुजा ने हार मान हीरा महाराजा को दे दिया, बदले में लुधियाना में अपने अंधे भाई के साथ एक हवेली में रहना और कई लाख रुपये का मुयावज़ा ले लिया। महाराजा ने ख़ुशी-ख़ुशी उसकी सब शर्त मान ली।

हीरा पाने के बाद महाराजा ने वफ़ा बेगम से पूछा – इस हीरे की क्या वैल्यू है। वफ़ा बेगम ने जवाब दिया, “यदि कोई शक्तिशाली आदमी एक पत्थर आकाश में, एक पत्थर दायें और दूसरा बायें उछाले उसके बीच में जो स्थान हो, उसे सोने से भरा जायें तो हीरे की क़ीमत आंकी जा सकेगी”। वफ़ा बेगम और उसका पत्थर प्रेम ‘हाय अल्लाह’!

ख़ैर, महाराजा रणजीत सिंह ने तुरंत लाहौर और अन्य स्थानों से सुनार, जौहरी आदि बुलाये। दो तीन दिन की गहन छानबीन के बाद कन्फर्म हुआ ‘कोह-ए-नूर’ वाक़ई में असली है। और इस घटनाक्रम से ‘स्वामांतक मणि’ की कहानी को अनेक जौहरियों ने एक बार फिर उभार दिया। महाराजा ने हीरे के लिए एक पट्टा बनवाया और अपनी दाहिनी भुजा पर हीरा धारण करना शुरू किया। फ़ोटो में आप वैसा पट्टा देख सकते है।

यहाँ तक के घटनाक्रम में ध्यान देने वाली बातें:

  • अब्दाली खानदान के ज़माँ शाह और शाह शुजा, महाराजा के पेन्शनर बने। उनकी दी हुई ख़ैरात पर पले।
  • शाह शुजा कुछ दशकों बाद अपने लोगों द्वारा मारा गया। ज़माँ शाह अंधा हो कर मरा।
  • कुछ दशकों में ही अब्दाली कुनबे का सफ़ाया हो गया, गद्दी उनके पास ना रही।
  • ‘कोह-ए-नूर’ अब तक अनेक बार मालिक बदल चुका था। अँग्रेज़ टकटकी लगाये इस पर अपनी आँख गड़ाये बैठे थे।
  • अब तक ‘कोह-ए-नूर’ में काटछाँट नहीं हुई थी।

किस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह को ‘कोह-ए-नूर’ के श्राप ने अपनी पकड़ में लिया एवं तब से लेकर 2023 तक क्या – क्या हुआ, ये सब पढ़ें भाग – 3 अंतिम अंक….

अगर आपने किस्सा ऐ ‘कोहिनूर’ का पहला अंक नहीं पढ़ा है तो आप यहाँ क्लिक करके उसे पढ़ सकते हैं।

इस अंक को पढ़ने के लिए धन्यवाद, अपने अनमोल सुझाव अवश्य दें एवं Kohinoor से संबन्धित कोई नई जानकारी भी साझा करें….

सत्य की खोज में एक समय यात्री!

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