भूमिहार कौन हैं ‘ब्राह्मण‘ या ‘क्षत्रिय’ ? Are Bhumihar really Brahmin, or not ?
ये सवाल लोगों के मन में उठता रहता है? भूमिहार कौन हैं और कहाँ से आए ? इसके अतिरिक्त भी अनेक सवाल भूमिहारों को लेकर लोगों के मन में पैदा होते हैं जैसे – ‘भूमिहा किस जाती में आते हैं’ ? ‘भूमिहार और ब्राह्मण में अंतर क्या है’ ? त्यागी और भूमिहार में क्या अंतर है’? इस लेख में भूमिहार कौन से लेकर मन मस्तिष्क में उठाने वाले बाकी के अनेक सवालों के जबाब देने की कोशिश है :
हमारे देश में आज इस सवाल पर लोगों के मन में एक कौतूहल और रहस्य सा बना हुआ है, क्योंकि भूमिहारों की उत्पत्ति को लेकर भारतीय समाज में अनेक अवधारणाएँ प्रचालन में हैं। कई विद्वानों ने प्राचीन किंवदंतियों के आधार पर भूमिहार वंश की उत्पत्ति के संबंध का इतिहास लिखने की एक पहल की है।
सबसे प्रसिद्ध अवधारणा के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि भगवान परशुराम ने क्षत्रियों को पराजित किया और उनसे जीते हुये राज्य एवं भूमि ब्राह्मणों को दान कर दी। परशुराम से दान में प्राप्त राज्य / भूमि के बाद उन ब्राह्मणों ने पूजा की अपनी वांशिक / पारंपरिक प्रथा को त्याग कर जमींदारी और खेती शुरू कर दी और बाद में वे युद्दों में भी शामिल हुए। इन ब्राह्मणों को ही भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता है।
आजकल अपने देश में सभी को जाति के नाम पर प्रसिद्धि पाने का छोटा रास्ता सुविधाजनक लगता है। इसी प्रसिद्धि पाने के छोटे रास्ते के खेल में एक जाति को प्रोवोग किया जा रहा है वो है “भूमिहार”।
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इस ‘भूमिहारों’ शब्द को लेकर सबके मन मे हमेशा एक प्रश्न बना रहता है कि ये ‘ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय’, :या फिर ये ‘त्यागी ब्राह्मण’ हैं ? ये किस वर्ग में आते हैं या इनका कोई अलग ही वर्ग है? आपके मन के इस प्रश्न का ही जबाब देने की कोशिश की है जिसे पढ़कर आप अपनी जानकारी दुरुस्त कर लीजिए।
‘भूमिहार’ शब्द से पहचान है उन ब्राह्मणों की जिनका एक शक्तिशाली वर्ग है और जो अयाचक ब्राह्मण में आता है। भूमिहार या बाभन (अयाचक ब्राह्मण) एक जाति है जो अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता के लिए जानी जाती है। बिहार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और झारखंड में रहने वाली भूमिहार जाति गैर-ब्राह्मण ब्राह्मणों से जानी और पहचानी जाती है।
ये भूमिहार ब्राह्मण प्राचीन काल से भगवान परशुराम को अपना “मूल पुरुष / भूमिहारों का पिता” मानते हैं। इसी कारण भगवान परशुराम को भूमिहार-ब्राह्मण वंश का पहला सदस्य माना जाता है।
इतिहासकारों के अनुसार मगध के महान सम्राट पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही राजवंश भूमिहार ब्राह्मण (बाभन) के वंश से ही संबंधित थे।
भूमिहार ब्राह्मणों के सरनेम :
भूमिहार ब्राह्मण समाज में, उपाध्याय भूमिहार, पांडे, तिवारी / त्रिपाठी, मिश्रा, शुक्ल, उपाध्याय, शर्मा, ओझा, दुबे, द्विवेदी हैं। ब्राह्मणों में राजपाठ और जमींदारी आने के बाद से भूमिहार ब्राह्मणों का एक बड़ा हिस्सा स्वयं के लिए उत्तर प्रदेश में राय, शाही, सिंह, और इसी प्रकार बिहार में शाही, सिंह (सिन्हा), चौधरी (मैथिल से), ठाकुर (मैथिल से) जैसे उपनाम/सरनेम लिखना शुरू कर दिया था।
भूमिहार ब्राह्मण प्राचीन काल से ही कुछ स्थानों पर पुजारी भी रहे हैं। शोध करने के बाद, यह पाया गया कि त्रिवेणी संगम, प्रयाग के अधिकांश पंडे भूमिहार हैं। हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाना के आस-पास के काफी क्षेत्र में भूमिहार ब्राह्मण सैकड़ों वर्षों से कायस्थ, राजपूत, माहुरी, बंदूट, आदि जातियों/वर्गों के यहाँ पुरोहिती का कार्य कर रहे हैं और यह गजरौला, तांसीपुर के त्यागियों का भी अनेक वर्षों से ये पुरोहिती का ही कार्य है।
इसके अतिरिक्त बिहार में गया स्थित सूर्यमंदिर के पुजारी भी केवल भूमिहार ब्राह्मण पाए गए। हालांकि, गया के इस सूर्यदेवमंदिर का काफी बड़ा भाग सकद्वीपियो को बेच दिया गया है।
भूमिहार ब्राह्मणों ने 1725-1947 तक बनारस राज्य पर अपना आधिपत्य बनाए रखा। 1947 से पहले तक कुछ अन्य बड़े राज्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के शासन में थे जैसे बेतिया, हथुवा, टिकारी, तमकुही, लालगोला आदि ।
बनारस के भूमिहार ब्राह्मण राजा चैत सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और वारेन हेस्टिंग्स और ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देते हुये उसके दांत खट्टे कर दिये थे। इसी प्रकार हथुवा के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने 1857 में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
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उत्तर भारत की अनेक जमींदारी एवं राज्य भी भूमिहार से संबंधित रहे हैं जिसमें से प्रमुख थे औसानगंज राज, नरहन राज्य, अमावा राज, शिवहर मकसूदपुर राज, बभनगावां राज, भरतपुरा धर्मराज राज, अनापुर राज, पांडुई राज, जोगनी एस्टेट, पुरसगृह एस्टेट (छपरा), गोरिया कोठारा एस्टेट (सीवान), रूपवाली एस्टेट, जैतपुर एस्टेट, घोसी एस्टेट, परिहंस एस्टेट, धरहरा एस्टेट, रंधर एस्टेट, अनापुर रंधर एस्टेट, हरदी एस्टेट, ऐशगंज जमींदारी, ऐनखाओं जमींदारी, भेलवाड़ गढ़, आगापुर राज्य पानल गढ़, लट्ठा गढ़, कयाल गढ़, रामनगर ज़मींदारी, रोहुआ एस्टेट, राजगोला ज़मींदारी, केवटगामा ज़मींदारी, अनपुर रंधर एस्टेट, मणिपुर इलाहाबाद आदि। इसके अतिरिक्त औरंगाबाद में बाबू अमौना तिलकपुर, जहानाबाद में शेखपुरा एस्टेट, तुरुक तेलपा क्षेत्र, असुराह एस्टेट, कयाल राज्य, गया बैरन एस्टेट (इलाहाबाद), पिपरा कोही एस्टेट (मोतिहारी) आदि सभी अब इतिहास की गोद में समा चुके हैं।
जुझौतिया ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मण, किसान आंदोलन के पिता कहे जाने वाले ‘दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती”, १८५७ के क्रांति वीर मंगल पांडे, बैकुंठ शुक्ल जिन्हें 14 मई 1936 को ब्रिटिश शासन में फांसी दी गई, यमुना कर्जी, शैल भद्र याजी, करनानंद शर्मा, योगानंद शर्मा, योगेन्द्र शुक्ल, चंद्रमा सिंह, राम बिनोद सिंह, राम नंदन मिश्रा, यमुना प्रसाद त्रिपाठी, महावीर त्यागी, राज नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी, अलगु राय शास्त्री, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, राहुल सांस्कृत्यायन, जैसे अनेक प्रसिद्ध क्रांतिकारी और कवि एवं महान विभूतियाँ भूमिहार ही थे।
देवीप्रसाद चौधरी, चंपारण आंदोलन की प्रणेता राज कुमार शुक्ल, फतेह बहादुर शाही हथुवा के राजा ने भी 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था।
काशी नरेश ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय कई हज़ार एकड़ का भूमि दान दी थी। इसी प्रकार मुर्शिदाबाद के राजा योगेंद्र नारायण राय लालगोला अपने दान और परोपकारी कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे। ये महान व्यक्तित्व के स्वामी भूमिहार ब्राह्मण वर्ग से ही थे।
भूमिहार ब्राह्मणों के गोत्र :
पाठकों की जानकारी के लिए भूमिहार ब्राह्मणों के कुछ मूलों (कुलों) की सूची यहाँ दी गई है: –
- कान्यकुब्ज शाखा से: – किन्वार, ततिहा, दोनवार, सकरवार, वंशवार के तिवारी, कुढ़ानिया, ननहुलिया, दसिकर, आदि।
- सरयू नदी के तटीय निवासियों से: – नैनीजोर के तिवारी, कोल्हा (कश्यप), पूसारोड (दरभंगा) खीरी से आये पराशर गोत्री पांडे, मचियाओं और खोर के पांडे, मुजफ्फरपुर में मथुरापुर के गर्ग गोत्री शुक्ल, गौतम, गाजीपुर के भारद्वाजी, इलाहबाद के वत्स गोत्री गाना मिश्र, म्लाओं के सांकृत गोत्री पांडे, आदि ।
- मैथिल शाखा से: – उत्पत्ति के कई भूमिहार ब्राह्मण मैथिल शाखा से आते हैं जो बिहार में बस गए थे। इनमें संदलपुर के शांडिल्य गोत्री दिघवय – दिघवित और दिघवय और सवर्ण गोत्री बेमुवार, बहादुरपुर के चौधरी प्रमुख हैं। ये सभी अपने नाम में चौधरी, राय, ठाकुर, सिंह मुख्यतः मैथिल का उपयोग करते हैं
- महियालो की शाखा से: – पराशर गोत्री ब्राह्मण पंडित जगनाथ दीक्षित जो महियालो की बाली शाखा के थे वे छपरा (बिहार) में एकसार स्थान पर बस गए। इस प्रकार एकसार में प्रथम वास करने से छपरा, मुजफ्फरपुर, वैशाली, चैनपुर, सुरसंड, गौरैया कोठी, समस्तीपुर, परसगढ़, गमिरार, बहलालपुर, आदि गाँव में बसे हुए सभी पराशर गोत्री एक्सरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण बन गए।
- चितपावन से: – कभी पूर्व काल में बिहार स्थित गया में एक न्याय भट्ट नामक चितपावन ब्राह्मण सपरिवार श्राध हेतु आये थे। अयाचक ब्रह्मण होने के नाते उन्होंने अपनी पोती का विवाह मगध के इक्किल परगने में वत्स गोत्री दोनवार के पुत्र उदय भान पांडे से कर दिया और इस प्रकार आगे उनकी संतति भूमिहार ब्राह्मण हो गई। चितपावनिया मूल के ये कोंडिल्य गोत्री अथर्व भूमिहार ब्राह्मण पटना डाल्टनगंज रोड पर धरहरा, भरतपुर आदि जैसे कई गाँवों और दुमका, भोजपुर, रोहतास के कई गाँवों में रहते हैं।
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इतिहास कहता है कि पहले सभी भूमिपति ब्राह्मणों के लिए ‘जमींदार ब्राह्मण’ शब्द का ही प्रयोग किया जाता था। इन ब्राह्मणों के एक समूह ने सोचा कि ज़मींदार तो सभी जातियों में हो सकते हैं, फिर हमारे और उन जमींदारों की जातियों की अलग-अलग की पहचान में क्या अंतर होगा। बहुत सोच-विचार के परिणाम स्वरूप ये “भूमिहार” शब्द अस्तित्व में आया। “भूमिहार ब्राह्मण” शब्द की व्यापकता की कहानी भी बहुत दिलचस्प है।
1885 में, बनारस के महाराज ईश्वरी प्रसाद सिंह ने बिहार और उत्तर प्रदेश के जमींदार ब्राह्मणों को इकट्ठा किया और उनके समक्ष प्रस्ताव रखा कि हमें एक जातीय सभा करनी चाहिए। इस सभा के सवाल पर वहाँ उपस्थित सभी सहमत थे। लेकिन सबने एक ही सवाल उठाया कि इस सभा का नाम क्या होना चाहिए, इस पर बहुत विवाद था।
उस समय कालीचरण सिंह जो मगध के बामनों के नेता थे, ने बैठक को “बाभन सभा” नाम देने का प्रस्ताव रखा। जबकि महाराज स्वयं “भूमिहार ब्राह्मण सभा” के पक्ष में थे। लेकिन उस बैठक में आम सहमति नहीं बन सकी, इस कारण नाम पर विचार करने के लिए सर्व सम्मति से एक उपसमिति का गठन किया गया।
लगभग सात साल बाद, उस समिति की सिफारिश पर, “भूमिहार ब्राह्मण” शब्द को ही स्वीकार किया गया और उसी समय इस शब्द का प्रचार और प्रसार करने का भी निर्णय किया गया। उसी समय बनारस के महाराज और लंगट सिंह जी के सहयोग से मुजफ्फरपुर में एक कॉलेज की भी स्थापना की गई। बाद में, उस समय के तिरहुत के आयुक्त का नाम जोड़कर, इसे जी.बी.बी. कॉलेज के नाम से जाना गया। आज उसी कॉलेज को लंगट सिंह कॉलेज के नाम से जाना जाता है।
द्वितीय – चीनी यात्री फ़ाह्यान के संस्मरण गर्न्थो में ब्राह्मण शासकों का उल्लेख:
In the year 399 A.D. a Chinese traveler, Fahian said “owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism….are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called ‘Sang he Kang”, which has been translated by professor Hoffman as ‘Land seizer’. (वर्ष ३९९ ईस्वी में एक चीनी यात्री, फाह्यान ने कहा, “क्षत्रियों के परिवारों के लगभग विलुप्त होने के कारण, महान अव्यवस्था फैल गई है। ब्राह्मणों ने तपस्या छोड़ दी है … क्षत्रियों के स्थान पर यहां और वहां शासन कर रहे हैं, और उन्हें ‘संग हे कांग’ कहा जाता है, जिसका अनुवाद प्रोफेसर हॉफमैन ने ‘लैंड सीज़र’ के रूप में किया है।)
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अर्थात “क्षत्रिय जाति करीब करीब विलुप्त सी हो गई है तथा बड़ी अव्यवस्था फ़ैल चुकी है
ब्राह्मण धार्मिक कार्य छोड़ क्षत्रियों के स्थान पर राज्य शासन कर रहे हैं”
अयाचक ब्राम्हण से भूमिहार शब्द —
भूमिहार शब्द का प्रचलन या प्रयोग सबसे पहले 1526 ई० में बृहतकान्यकुब्जवंशावली में किया गया है।
‘बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण’ (1526) के 117वें पृष्ठ पर मिलता है
इसमें लिखा हैं कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण के निम्नलिखित पांच प्रभेद हैं:-
(1) प्रधान कान्यकुब्ज (2) सनाढ्य (3) सरवरिया (4) जिझौतिया (5) भूमिहार
- एम॰ए॰ शेरिंग ने अपनी पुस्तक “हिंदू ट्राइब्स एंड कास्ट” में 1862 में कहा था कि, “भूमिहार जाति के लोग ब्राह्मण हैं जो हथियार उठाते हैं (सैन्य ब्राह्मण)।”
- अंग्रेजी के विद्वान श्री बीन्स ने लिखा है – “भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमें आर्य जाति की सभी विशेषताएं हैं। वे निडर और स्वभाव में हावी हैं।”
- पंडित अयोध्या प्रसाद ने अपनी पुस्तक “वप्रोत्तम परची” में लिखा है “भूमिहार – भूमि या सौंदर्य की माला, जो अपने महत्वपूर्ण गुणों और सार्वजनिक कार्यों से पृथ्वी को अलंकृत करता है, हमेशा समाज के दिल में बसता है – सबसे लोकप्रिय ब्राह्मण”।
- विद्वान योगेंद्र नाथ भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक “हिंदू कास्ट एंड सेक्शन” में लिखा है कि भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति को उनके नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है भूमिग्राम ब्राह्मण। पंडित नागानंद वात्स्यायन द्वारा लिखित पुस्तक – “भूमिहार ब्राह्मण इतिहास के आईने में”
एक जाति के रूप में भूमिहारों का संगठन:
भूमिहार ब्राह्मण जाति, के बारे में विद्वानों का मत है कि ये ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अछूतों का संगठन है।
समाजशास्त्रियों के विद्वानों द्वारा प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकलने वाले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता था। उसके बाद, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में सारस्वत, महियाल, सरयूपारी, मैथिल, चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं से निकाले गए या अछूत ब्राह्मण इन लोगों में शामिल हो गए और वे भी भूमिहार ब्राह्मण हो गए।
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इसी प्रकार मगध के बाबूओं और मिथिलांचल के ब्राह्मणों और प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अछूत होने के कारण भूमिहार ब्राह्मणों में शामिल हो गए।
कुछ इतिहासज्ञों के अनुसार भूमिहार ब्राह्मण का मूल स्थान मदारपुर है जो वर्तमान उत्तरप्रदेश के कानपुर-फरुखाबाद की सीमा पर बिल्हौर स्टेशन के पास स्थित है।
कहा जाता है कि 1524 में बाबर ने अचानक मदारपुर पर हमला कर दिया। इस भीषण युद्ध में मदारपुर के ब्राह्मणों सहित सभी लोग मारे गए थे। किसी तरह ‘अनंतराम ब्राह्मण’ की पत्नी इस नरसंहार से बची, जिससे बाद में एक बच्चे जन्म हुआ। उस बच्चे का नाम गर्भु तिवारी रखा गया। गर्भु तिवारी के समूह के लोग कान्यकुब्ज क्षेत्र के कई गांवों में बसते हैं। बाद में, उनके वंशज उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न गांवों में बस गए। इसी गर्भु तिवारी के वंशज कालांतर में भूमिहार ब्राह्मण कहलाए। गर्भु तिवारी के वंशजों से वैवाहिक संपर्क करने वाले ब्राह्मण को भी आगे चलकर भूमिहार ब्राह्मण कहा गया।
अंग्रेजों ने जब भारत की सामाजिक सरंचना का अध्ययन किया तो उन्होंने भूमिहारों और भूमिहारों के उप-वर्गों का उल्लेख अपने गजेटियरों सहित अन्य पुस्तकों में भी किया।
गढ़वाल काल के बाद, मुसलमानों के द्वारा सताये जाने पर भूमिहार ब्राह्मण कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन कर गए और सुविधानुसार अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर बस गए। इस बिखराव के कारण ये कई उप-वर्गों में विभाजित होते चले गए। आगे चलकर इनकी पहचान उन्हीं उप-वर्गों के आधार पर होने लगी, जैसे – दोनवार, सकरवार, कुढ़ानिया, गौतम, कान्यकुब्ज, जेठिया आदि
इन उप-वर्गों का विभाजन कई तरीकों से किया गया। इनमें से कुछ लोगों ने अपने आदि/कुल पुरुष के नाम को लिया तो कुछ लोगों ने अपने गोत्र को ही अपना उप-वर्ग बनाया, वहीं कुछ ने अपने जन्म/निवास स्थान से प्राप्त किया। उदाहरण के लिए, सोनभद्र, सोनभद्रिया, सरयू नदी के पार सरयू नदी के किनारे रहने वाले लोगों के नाम, आदि कुछ का नाम मुल्डीह के नाम पर रखा गया था, जैसे कि ज़ेथरिया, हीरा पांडे, वेलौचे, मचैया पांडे। , कुसुमी तिवारी, ब्रह्मपुरी, दीक्षित, जुजौतिया, आदि।
पिपरा के रहने वाले, सोहगौरा के तिवारी, हीरापुरी पांडे, गोरनेर के तिवारी, मक्खर के शुक्ला, बर्षी मिश्रा, हेस्टेज के पांडे, नैनीजोर के तिवारी, ज्ञान मिश्र, पांडे, माचिया के पांडेय, डुमटीकर तिवारी, भुवी आदि।
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ब्राह्मणों के पास भूमि होने के कारण उन्हें भूमिहार कहा जाने लगा और भूमिहार पूर्व में कन्नौजिया में शामिल हो गए और भूमिहारों को अपने में ले लिया।
भूमिहारों में आपसी भाईचारा और एकता है। भूमिहार जाति के लोग भी अन्य जातियों की तरह अंतर्विवाही होते हैं। ये भी अपनी जाति के अंदर ही विवाह करने को धर्म मानते हैं।
- ऋषिकुल भूषण काशी नरेश महाराज श्री ईश्वरी प्रसाद सिंह जी ने 1885 सबसे पहले वाराणसी में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा की स्थापना की।
- अखिल भारतीय त्यागी महासभा की स्थापना भी 1885 में ही मेरठ में हुई थी।
- मोहियाल सभा की स्थापना 1890 में हुई थी।
- स्वामी सहजानंद जी ने 1913 में, बलिया में सभा का आयोजन किया।
- चौधरी रघुवीर नारायण सिंह त्यागी की अध्यक्षता में 1926 में, अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा पटना में आयोजित हुई।
अंतिम निष्कर्ष — भूमिहार या बाभन (अयाचक ब्राह्मण) एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। बिहार, पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं झारखण्ड में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्रहामणों को से जाना व पहचाना जाता हैं। मगध के महान पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही ब्राह्मण राजवंश भूमिहार ब्राह्मण (बाभन) के थे भूमिहार ब्राह्मण भगवन परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है