जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत है किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ या ‘Kohinoor’ की दिलचस्प दास्तां का तीसरा/अंतिम अंक:
अगर आपने किस्सा ऐ ‘कोह-ए-नूर’ का पहला एवं दूसरा अंक नहीं पढ़ा है तो आप आगे के लिंक पर क्लिक (पार्ट – 1, एवं पार्ट – 2) करके उन्हें पढ़ सकते हैं। पहले अंक में हम महाभारत काल में चर्चित हुई ‘स्यमन्तक मणि’ से लेकर कृष्ण, सत्यभामा, जामवंती के अलावा अलाउद्दीन खिलजी, बाबर, हुमायूँ तक के इतिहास पर लिख चुके हैं। दूसरे अंक में नादिर शाह से महाराजा रणजीत सिंह तक कोहिनूर/Kohinoor कैसे पहुँचा इसके बारे में लिखा गया है? कोह ए नूर पर को लेकर जिज्ञासु लोगों के मन में अनेक सवाल कुलबुलाते रहते हैं, जैसे – क्या स्यमन्तक मणि ही Kohinoor है? आखिर कोह ए नूर के साथ अभिशप्त/श्रापित होने का विश्वास/अंधविश्वास कब और क्यों जुड़ा? कोहिनूर का असली मालिक कौन है? अब कोह ए नूर किसके पास है एवं 2022 में ब्रिटेन की महारानी एलीज़ाबेथ ॥ की मृत्यु के बाद Kohinoor Crown कौन पहनेगा? इन सवालों पर इस लेख के तीनों अंकों में समेटने की कोशिश की गई है, ये कोशिश कितनी कामयाब हुई ये तो सिर्फ जिज्ञासु पाठकों की प्रतिक्रिया से ही ज्ञात होगा….
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अब गतांक से आगे….
महाराजा रणजीत सिंह ने ‘कोह-ए-नूर’ हासिल कर अपनी चिरलंबित साध पूर्ण की, अब्दाली ख़ानदान की लूट को वो वापस भारत ले आये। महाराजा ने ‘कोह-ए-नूर’ को अपनी भुजा पर धारण किया और कड़ी सुरक्षा में रखा। महाराजा के तोष्ख़ाने के अध्यक्ष ‘मिश्र बेलीराम’ के अतिरिक्त ‘कोह-ए-नूर’ के बारे में कोई और नहीं जानता था। बेलिराम हमेशा चालीस ऊँट लिए साथ चलता और ‘कोह-ए-नूर’ के दो डुप्लीकेट हीरे साथ में होते। तीन हीरे इन चालीस ऊँटो में लदे होते, केवल बेलीराम को ही ज्ञात होता कौन से ऊँट वाला हीरा असली है।
महाराजा को हीरा १८१३ में मिला और दो दशक बाद महाराजा को पहला पक्षाघात हुआ। महाराजा की साख और प्रतिष्ठा आसमान छू रही थी किंतु ‘कोह-ए-नूर’ आने के बाद लोग उनपर एक मोमिन नचनिया के प्रति आसक्ति और बुढ़ापे में बाप बनने पर उँगलियाँ उठाने लगे। महाराजा के एक के बाद एक करके तीन पक्षाघात हुए। पहले दौरे के बाद उनकी वाणी अवरुद्ध होने लगी। तीसरे दौरे पर हालात गंभीर हो गये।
Kohinoor – महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद
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महाराजा के पुरोहितों के दल ने महाराजा को सलाह दी- मृत्यु पूर्व जब वो दान आदि करें तो ‘कोह-ए-नूर’ को जगन्नाथ मंदिर को सौंप दें। महाराजा ने अपनी मृत्यु पूर्व स्वर्ण जटित सींग वाली गाय और अनेक मन स्वर्ण रत्न आदि स्वर्ण मंदिर, काशी विश्वनाथ जगन्नाथ मंदिर आदि को दान में दिये। मृत्यु शैय्या पर पड़े महाराजा बोलने में समर्थ ना थे किंतु एक हाथ और सर की जुंबिश से वो हाँ या ना कर रहे थे। मुख्य पुरोहित ने उनसे गुहार लगाई- ‘कोह-ए-नूर’ को भगवान कृष्ण को अर्पित कर श्राप से मुक्ति पाएँ। जगन्नाथ मंदिर को ‘कोह-ए-नूर’ दे दें- महाराजा ने जुंबिश कर हामी भरी और हीरा लाने का इशारा किया।
इस पल बेलीराम ने कहा- “हीरा अमृतसर में है” उसने देने में आनाकानी की और इस पल महाराजा के प्राण पखेरू उड़ गये। पुरोहित दल और महाराजा के इतिहासकारों ने बाक़ायदा नोट करवाया हीरा मंदिर को दान में दिया जाना है। किंतु बेलीराम ने साफ़ इंकार कर दिया, कहा- “हीरा महाराजा का नहीं बल्कि सिख साम्राज्य का है अतः हीरा अगले ‘महाराजा खड़क सिंह’ को मिलेगा”। मंत्री ‘ध्यान सिंह’ ने भी इस बात का अनुमोदन किया। इन सब को ज्ञात नहीं था अगले दस वर्षों में क्या क़यामत आने वाली है।
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हीरे को धारण करने वाले खड़क सिंह को धीमा ज़हर दिया गया, शरीर पर फ़ोफ़ले फूटने लगे। उनकी अकाल मृत्यु हो गई, उनकी अंत्येष्टि के बाद जब उनका पुत्र नौनिहाल वापस आ रहा था तो एक गेट टूट उन पर गिर पड़ा, ये गेट महाराजा रणजीत सिंह ने ‘कोह-ए-नूर’ मिलने के उपलक्ष्य में बनवाया था। अगले ‘महाराजा शेर सिंह’ ने हीरा धारण क्या किया उन्हें भी मार डाला गया। महाराजा रणजीत सिंह के सब उत्तराधिकारी समाप्त हो गये और केवल छह वर्षीय ‘महाराज दलीप सिंह’ शेष रहे।
ब्रिटिश सत्ता ने महाराजा दलीप सिंह से कैसे छीना कोह ए नूर
दलीप सिंह ने हीरा धारण किया और कालचक्र ऐसा घूमा कि एंग्लो सिख युद्ध के बाद लाहौर संधि हुई जिसकी एक शर्त थी हीरा ब्रिटेन की महारानी विटोरिया को दिया जाएगा। इतना ही नहीं अपितु इसके साथ ही सिख साम्राज्य का समस्त कोष भी अँग्रेजी हुकूमत ने क़ब्ज़े में ले लिया। बेलीराम को हटा डॉक्टर ‘लोगिन’ ने कोष सम्भाला। लोगिन की डायरी पढ़ने योग्य है, उसमें ग़ज़ब क़िस्से बताये गये हैं।
दलीप सिंह को बचपन में ही अपनी माँ रानी ज़िंदन कौर से अलग कर दिया गया। रानी को क़ैद कर लोगिन को दलीप की जिम्मेदारी दी गई। ‘लार्ड डलहौज़ी’ ने फ़ैसला किया हीरा ब्रिटिश रानी को भेजा जाएगा। लोगिन चाहते थे हीरा बेच कर पंजाब की तरक़्क़ी के लिए इस्तेमाल किया जायें। लेकिन हीरा तो इंग्लैंड जाना तय था। चूँकि रानी विक्टोरिया लूट का माल नहीं लेना चाहती थी अतः डलहोज़ी ने ऐसा दर्शाया जैसे दलीप सिंह ख़ुद अपनी मर्ज़ी से विक्टोरिया को हीरा अर्पित करने आ रहे हैं।
इस तरह से ग्यारह साल के बालक को इंग्लैंड जहाज़ में अपनी माँ से जुदा कर हीरा देने भेजा गया। ये थी ब्रिटिश तहज़ीब जिसकी मिसाल दुनिया में दी जाती है। लुटेरी और छिछोरी तहज़ीब…!!
यहाँ ध्यान देनी वाली मुख्य बातें:
- ‘कोह-ए-नूर’ ने रंगीला का ग्रास किया और उसके बाद नादिर शाह का वंश समेत विनाश।
- अब्दाली को कोढ़ हुआ और उसका वंश तबाह।
- महाराजा रणजीत सिंह के वंश और साम्राज्य का अंत : केवल दस वर्षों में।
- जगन्नाथ मंदिर में हीरा दान देने का कारण हीरा का स्वामांतक मणि से लिंक ही था।
- जगन्नाथ मंदिर के पुरोहितों ने हीरे पर अधिकार जताया किंतु अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसे दबा दिया।
- ‘कोह-ए-नूर’ से जुड़े एक अज्ञात आदमी के अनेक चिट्ठियाँ आदि बहुत रहस्यमय और विचित्र थे जो उस काल में लंदन के अख़बारों में छपते रहे।
- हीरा अभी भी अपने असली रूप में था, अभी तक कोई कटाई आदि नहीं हुई थी।
आगे है इस हीरे की शापित कहानी का वर्तमान हाल:
महाराजा दलीप सिंह से हीरा छीन लार्ड डलहोज़ी ने ‘जॉन लॉरेंस’ को सेफ कीपिंग के लिये दिया। लॉरेंस उस डब्बे को अपने कोट की जेब में रख भूल गए, कोट पेंट धुलने चला गया। धोबी ने शराफ़त से हीरा वापस दे दिया। लार्ड डलहौज़ी ने दलीप सिंह डॉक्टर लोगिन और लॉरेंस बंधुओं को ‘रानी विक्टोरिया’ को हीरा देने इंग्लैंड पानी के जहाज़ से भेजा। हीरा हालाँकि दूसरे जहाज़ से इंग्लैंड गया।
हीरे को पंजाब से बंबई बंदरगाह तक डलहौज़ी ख़ुद लेके गया। कड़ी सुरक्षा के बीच लेडी डलहौज़ी ने ख़ुद एक बटुआ सिया जो लार्ड के सीने से दो महीने तक बांध कर रखा गया। एक क्षण के लिए लार्ड ने उसे अपने सीने से नहीं हटाया। ‘कोह-ए-नूर’ की पंजाब से बंबई तक यात्रा भी एक ग़ज़ब विवरण है।
एक पानी के जहाज़ में ‘कोह-ए-नूर’ को इंग्लैंड के लिए रवाना किया गया। मॉरीशस तक पहुँचते इस जहाज़ में हैज़ा फैल गया- अनेक नाविक मर गये। मॉरीशस पोर्ट पर इन्हें केवल कोयला दे भगा दिया गया। बीमार नाविक दल ने आगे की यात्रा जारी रखी, अगले दिन ही बारह घंटे का भयानक समुद्री तूफ़ान आया, बचने के कोई चांस ना थे। किसी चमत्कार से जहाज़ इंग्लैंड तक पहुँचा।
जिस दिन ‘कोह-ए-नूर’ ने इंग्लैंड की धरती पर अपना प्रतिबिंब बिखेरा ठीक उस दिन इंग्लैंड का प्रधान मंत्री ‘सर पील’ मरा मिला, उसके घोड़े ने उसे गिरा अपनी टापो से उसे रौंद दिया था। ठीक इसी दिन रानी विक्टोरिया पर एक आदमी ने अपनी भारी छड़ी से रानी के सर पर वार किया जिससे रानी की खोपड़ी में बहुत चोट आई, हालाँकि रानी बच गई किंतु रानी के माथे पर एक निशान हमेशा के लिए बन गया। ‘कोह-ए-नूर’ आने के एक हफ़्ते बाद रानी के प्रिय अंकल भी ख़ुदा को प्यारे हो लिए।
जिस दिन रानी ने ‘कोह-ए-नूर’ को ऑफिशियली ग्रहण किया वो दिन इंग्लैंड का राष्ट्रीय दुःखद दिन था, उस दिन झंडा आधा झुका हुआ था। रानी को हीरा क़तई पसंद ना था, हीरे को लेके इंग्लैंड की जनता में ग़ज़ब का क्रेज़ था। इस के चलते हीरे को एक प्रदर्शनी में रखा गया। अंधेरी गैलरी में इस हीरे को मशालों की रोशनी में रखा गया, किंतु जनता को इस में ‘रोशनी के पहाड़’ जैसी कोई बात ना दिखी, जनता निराश हुई। आखिर रोशनी फूटती भी कैसे, हीरे को वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं मिल रहा था।
पहली बार हीरे को काटकर छोटा किया गया:
अलबत्ता रानी विक्टोरिया के पति अल्बर्ट ने ‘कोह-ए-नूर’ को तराशने के लिए एक टीम बनाई और दो महीने बाद तराशा हीरा दलीप सिंह को दिखाया गया। हीरे को देख दलीप सिंह सदमे से बैठे रहे, कारण- हीरे को ४५ प्रतिशत काट कर छोटा कर दिया गया था यानि 186 कैरेट के बड़े आकार वाले हीरे को काटकर महज 105.6 कैरेट का कर दिया गया था। हालाँकि कुछ तथ्य ये भी कहते हैं कि “जब ‘कोह-ए-नूर’ हीरा पाया गया था उस समय यह कुल 739 कैरेट का था लेकिन औरंगजेब के शासन में वेनिस के जौहरी होर्टेंसो बोर्जिया द्वारा तरांशे जाने के बाद यह केवल 186 कैरेट का बचा था”।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि, आज तक, ‘कोह-ए-नूर’ हीरा कभी भी व्यापार या बिक्री के अधीन नहीं रहा है; इसके बजाय, यह एक राजा से दूसरे राजा के एवं विभिन्न सुल्तानों के पास जाता रहा है। अंततः, 1849 में ब्रिटिश सरकार ने महाराजा दलीप सिंह से हीरे को अपने अधिकार में ले लिया या कहें तो “एक बच्चे से छीन/लूट लिया”।
महारानी विक्टोरिया को Kohinoor कब मिला:
हीरा रानी विक्टोरिया को मिला १८५० में, उसके लगभग सात साल बाद में भारत में अँग्रेज़ काल का सबसे बड़ा विद्रोह हुआ। इसके चार साल बाद रानी विक्टोरिया विधवा हो गई, इंग्लैंड वाले उसे मनहूस बेवा कहते थे। रानी इतनी तन्हा और अकेली थी कि एक बार अपने साईस से प्रेम कर बैठी और दूसरी बार अब्दुल नामक भारतीय नौकर से।
इस कहानी को ख़त्म करना आसान नहीं है क्योंकि ये हीरा अनेक रानियों के पास रहा। श्राप लगातार काम करता रहा। किसी राजसी आदमी ने हीरा धारण नहीं किया। जबसे से हीरा लंदन में अँग्रेजी हुक्मरानों के पास पहुँचा उसी दिन से उनके अखंड कहे/माने जाने वाले शासन को ग्रहण सा लग गया और उसका पतन आरंभ हो गया।
किवदंतियों के अनुसार जहाँ ‘कोह-ए-नूर’ को कुछ लोग आशीर्वाद के रूप में देखते हैं, वहीं इसे अभिशाप के रूप में भी देखा जाता है। पूरे इतिहास में, इस हीरे को दुर्भाग्य और यहाँ तक कि उन राजाओं और शासकों के निधन से भी जोड़ा गया है, जिन्हें यह विरासत में मिला या किसी भी प्रकार उनके पास रहा।
कोहिनूर के साथ जुड़ा अभिशप्त होने का अंधविश्वास:
कुछ मान्यताओं के अनुसार, ‘कोह-ए-नूर’ हीरा एक अंधविश्वास से जुड़ा है कि यह पुरुष मालिकों के लिए दुर्भाग्य और यहां तक कि मौत लाता है, जबकि महिला मालिकों को अच्छे भाग्य का आशीर्वाद मिलता है।
इन्हीं मान्यताओं के चलते, रानी विक्टोरिया ने विशेष रूप से शाही परिवार के भीतर रानियों के लिए ‘कोह-ए-नूर’ हीरे को नामित किया, और उन्हें ‘कोह-ए-नूर’ से सुसज्जित मुकुट पहनने की विरासत सौंपी। ऐसे मामलों में जहां ब्रिटिश शाही परिवार की सत्ता किसी पुरुष राजा के हाथ में होगी तो ‘कोह-ए-नूर’ ताज पहनने की जिम्मेदारी उसकी पत्नी और ब्रिटेन की महारानी पर आती है।
इसी नियम के चलते ‘कोह-ए-नूर’ वाला ताज महारानी विक्टोरिया से होता हुआ महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय तक आया। 8 सितंबर 2022 को एलीज़ाबेथ की मृत्यु के बाद अब वो ताज उनके बड़े पुत्र चार्ल्स तृतीय के पास आया है। लेकिन चार्ल्स तृतीय ने इसे अभी तक धारण नहीं किया है।
अंत में कुछ ध्यान देने बातें योग्य:
- ‘कोह-ए-नूर’ सबसे पहले रानी विक्टोरिया ने धारण किया: पहले दिन से ही रानी ने इसका प्रकोप झेला।
- विक्टोरिया के बाद रानी अलेक्ज़ेंड्रा, मेरी और एलिज़ाबेथ ने धारण किया।
- राजकुमारी डायना की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई, उनकी सास ‘कोह-ए-नूर’ धारण करे हुई थी।
- जब से हीरा ४५ प्रतिशत छोटा हुआ, ब्रिटिश एम्पायर भी सिकुड़ता गया। जिस साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त ना होता हो, उसकी आज ये हालत है।
- हीरे के मालिकाना हक़ के लिए ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत सबने अपने दावे ठोके।
- २०१६ में भारत सरकार ने अपना दावा वापस ले लिया है।
- हीरे को लेके यूनेस्को और आईसीएजे के क़ानून लागू है जिसके चलते कदाचित् हीरा इंग्लैंड कभी किसी को ना दें।
इस विशाल कहानी को यही ख़त्म करते है। समय-समय पर डॉक्टर लोगिन और बाक़ी कुछ दिलचस्प क़िस्से आते रहेंगे।
विषय आधारित इस लेख को ध्यान से पढ़ने के लिए आप सब का आभार!
आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा….