Yes I am lonely | हाँ, अब मैं अकेला हूँ !!

Yes I am lonely !! तीन दोस्तों की एक ऐसी कहानी जहाँ एक दूसरे के लिए अपनी जान तक देने को तैयार रहने वाले मित्र सांप्रदायिकता और अलगाववाद के ऐसे शिकार होते हैं, कि अंत में उन्हें कहना पड़ता है “हाँ, अब मैं अकेला हूँ !!”

“काँधा नही लगाओगे बे… पहले भी चेतावनी दी थी…”

सज्जाद ने सिगरेट जमीन पर फेंकी और सीना आगे करके बोला…

“पीढ़ियों से लगा रहें हैं बे… बाप-दादा और उनके भी बाप-दादा.. तब काहे नही बोले.. अब क्यों… काँधा भी लगायेंगे और माँ का डोला, देवी नदी में विसर्जित करके भी आयेंगे…”

सज्जाद का इतना बोलना था कि विनय ठाकुर का एक घूँसा उसके जबड़े पर पड़ा और फिर विनय ठाकुर के साथ खड़े तीनों उसके मित्र सज्जाद पर टूट पड़े…

सज्जाद जमीन पर गिर गया और फिर लातें-घूँसे उसके जिस्म को सेंकने लगे…

यह भी पढ़ें: क्या हैं – दो प्रकार की COVID -19 वैक्सीन लगवाने के Side Effects?

तभी  “ओ… ओये… ओ रुक…”

तेजी से भागते हुए… अमित और रंजन, सज्जाद की ओर बढ़े और रंजन ने एक नजर सज्जाद पर डाली और फिर विनय ठाकुर का गिरेबाँ पकड़ लिया…

“काहे हाथ छोड़ा बे ठाकुर…?”

“रंजन दा… सम्मान करते हैं आपका… वरना गला नही पकड़ने देते… और वो भी एक विधर्मी के लिए…

मना किया था इसे ‘मातारानी’ की पालकी पे काँधा नही लगाये… और ये चढ़कर हमारे ऊपर आकर बोलता है… जो करना है कर लो… नही रंजन दा जो पहले होता आया… होता होगा… लेकिन हमारी समिति अब जे न होने देगी कान्हा पुर मे”

अमित जो जमीन पर बैठा था और जिसने सज्जाद का सर अपनी गोद में ले रखा था… सज्जाद का सर जमीन पर रखकर तन कर विनय ठाकुर के सामने आ गया…

तब तक रंजन विनय ठाकुर का गिरेबाँ छोड़ चुका था… अमित अनियंत्रित होकर बोला…

“काहे बे… काहे नही होने देगा.. कान्हापुर तेरे बाप ने खरीद लिया है क्या ? न… न… बोल चौधरी है, तू इस कस्बे का ? साले ये सज्जाद ही ‘मातारानी’ का जोड़ा और चुनरी सिलता है… और जो काँधा लगा दिया पालकी में तो तेरे चुन्ने काटने लगे… FIR लिखवाने जा रहें हैं तुझे अब जो उखाड़ना है उखाड़ लियो”

यह भी पढ़ें: COVID 19 वैक्सीन लेने के बाद क्या करें और क्या न करें

इतना सुनते ही विनय ठाकुर और उसके साथी मुस्कुराये… रंजन ने उन्हें आँखों से जाने का इशारा किया और वो लौट गये

रंजन और अमित ने सज्जाद को सहारा देकर जमीन से उठाया… अमित ने पास के नल से उसका मुँह धुलाया और जब सज्जाद ने थोड़ी राहत महसूस की तो वो पिनक कर बोला…

“साले चार थे… एक साथ धर लिए बुजदिल… एक-एक करके आते तो बताता”

अमित ने अपने रुमाल से सज्जाद का मुँह पोंछा और बोला…

“तू… तू… अकेले हमें छोड़कर इस गली में आया ही क्यों…?”

सज्जाद ने दर्द की एक गहरी सांस ली और बोला

“तलब यार… तेरे पिताजी खड़े थे… तो इधर गली में सिगरेट पीने चला आया और ये इन सालों ने घात लगाकर घेर लिया… साले बोलते हैं काँधा नही…”

सज्जाद की बात पूरी होती इससे पहले ही बीच में रंजन बोल पड़ा…

“सही तो बोलते हैं वो… हमें मुहर्रम में काँधा लगाने देते हो क्या…? मस्जिद में घुसने देते हो क्या…?”

रंजन की बात सुनकर जहाँ सज्जाद की बन्द होती आँखें एकदम से फटी रह गईं वहीं अमित को उस पर विश्वास नही हुआ जो उसने अभी रंजन के मुँह से सुना…

सज्जाद तुरन्त दर्द को भूलकर खड़ा हो गया और बोला…

यह भी पढ़ें: ऐनी-फ्रैंक की डायरी | “एक बहादुर ‘यहूदी’ लड़की”

“अबे मुझसे क्या जवाब माँगता है… जा किसी मौलवी के पास और मैंने कभी मना किया कि तू मुहर्रम को काँधा न दे या न घुस मस्जिद में… साले जहर भर गया है तुम्हारे दिलों में… अब्बू ठीक बोलते हैं मेरे… तुम हमें कभी अपना नही मान सकते… हाथ हटा बे अमित तू भी… और सुन रंजन भीड़ में रेलने को मर्दानगी नही बोलते… ठाकुर से कह दियो कभी भी अकेले मिलकर सलटा कर ले…”

रंजन भी जोश में आ गया…

“और बे पाकिस्तान में क्या होता है… वहाँ क्या अकेले-अकेले आते हैं निर्दोष हिंदुओं को मारने… और बाप मेरा भी ठीक बोलता है कि तुम लोगों से दूरी ही बना कर रखनी चाहिए…’

सज्जाद आगे बढ़कर कुछ बोलता इससे पहले ही अमित ने दोनों को दोनों हाथों से दूर धकेला और दहाड़ कर बोला…

” वाह… वाह… आ गये बेटा अपनी-अपनी औक़ातों पर… घुसेड़ ही दिया धर्म को दोस्ती के बीच… ले आये मंदिर मस्जिद… हिंदुस्तान, पाकिस्तान दोस्ती के बीच… तेरा अब्बू और तेरा बाप क्या बोलता है वो नही जानता मैं… और जानना भी नही चाहता… लेकिन इतना जान चुका हूँ कि आज अगर दोस्ती हारी तो जीत उनकी होगी जो इस देश की मानसिक अखण्डता को तोड़ कर यहाँ मानसिक खण्डता का झंडा खड़ा करना चाहते हैं… और वो तेरे अब्बू और और तेरे बाप की शक्ल में खड़े हैं… गले मिलो सालों… दोस्त हो तुम… दोस्त”

लेकिन रंजन के कदम ये सुनने से पहले ही दूसरी दिशा में आगे बढ़ चुके थे… सज्जाद भी अपनी दूसरी दिशा में ही आगे बढ़ना जरूर चाहता था लेकिन उसे फिलहाल अभी सहारे की जरूरत थी… रंजन आँखों से ओझल हो गया और सज्जाद का हाथ अपने काँधे में डालकर, उसको सहारा देकर अमित ने सज्जाद को उसके घर छोड़ा… उसके घर का दरवाजा खुलते ही… एक हल्ला मच गया…

“हाय अल्लाह ! सज्जू के अब्बू… या अल्लाह… अरे नीचे आओ…”

सज्जाद की अम्मी ने सज्जाद को सीने से लगा लिया और सज्जाद के अब्बू ने नीचे उतरकर ये मंजर देखकर बोला…

“दूर फेंक इस बेग़ैरत को… दफा कर इसे… मना किया था इन लोगों के साथ के लिए… जोड़ा और चुनरी सिलने का ये सिला मिला… अबे छोड़ दिया तेरे बाप ने ये काम 10 साल पहले… कुछ नही मिला हमको… और तुम बरखुरदार अमित… मैं नही जानना चाहता क्या हुआ… मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे को उसकी कौम के बच्चों के साथ तन्हा छोड़ दो… न हमें तुम्हारी दोस्ती चाहिए न तुम्हारी मेहरबानियां… जा सकते हो आप”

मैं तो लौट गया… लेकिन मेरे सबसे जिगरी दोस्त सज्जाद और रंजन अब कभी नही लौट सकेंगे… वो स्कूल की बेंच से शुरू हुआ हमारी दोस्ती का सफर… न जाने कितने अनगिनत खट्टे-मीठे पलों को समेटे यहाँ तक पहुँचा था… न जाने कितनी मस्तिया की… सज्जाद डाकिया था कॉलेज में रंजन का… जिस भी लड़की को रंजन प्रेम पत्र लिखता सज्जाद उसे हर खतरा झेल कर उस लड़की तक पहुँचाता… रंजन की दबंगगिरी स्कूल से लेकर कॉलेज तक छाई रही… जान देता था वो सज्जाद के लिए…

यह भी पढ़ें: COVID-19 की दूसरी लहर के इस कठिन समय चिंता और तनाव को कैसे दूर करें ?

लड़की छेड़ते वक्त या डेढ़ इश्किया होने पर हमने सिर्फ लड़की देखी… न देखी उसकी जात और न उसका धर्म…

शबाना खान से रंजन का गहरा इश्क सज्जाद की बदौलत शुरू हुआ और दिव्या नागर सज्जाद पर जान छिड़कती थी वो सिर्फ रंजन की वजह से…

हमारा झूठा बियर केन उठाते वक्त सज्जाद ने कभी उसको हराम नही कहा… और न हमने कभी सज्जाद की झूठी चाय पर उसका स्वाद ही टटोला…

सब ठीक चल रहा था… कॉलेज के गेट के अंदर एक ऐसी जिंदगी थी जो जन्नत थी… लेकिन फिर राजनीतिक पार्टियों ने कॉलेज चुनाव कैप्चर करने शुरू किए और बाहर की सामाजिक गंध कॉलेज की फिजा में तेजी से तैरने लगी…

जो कॉलेज के चुनाव कॉलेज के मुद्दों पर लड़े जाते थे अब उसमें धर्म और मजहब के रंग घुलने लगे थे…

लेकिन जो प्यार हमारे दिलों में एक रंग होकर घुला था अब उसका क्या होगा…?  यही सोचते-सोचते मैं घर पहुँचा…

“आ गये बेटा… खून लगा है शायद कपड़ो में… तुम्हें तो एस॰पी॰ बनना है न… और तुम बन भी गये… रंजन जैसे गुंडे और सज्जाद जैसे सड़कछाप की दोस्ती तुम्हे एस॰पी॰  बनाये न बनाये लेकिन एक दिन तिहाड़ का कैदी जरूर बना देगी”

पिताजी की ये बातें रंजन और सज्जाद के बाप से कम जहरीली नही थी… वो स्टेट्स को दोस्ती की शर्तें समझते थे और मैं प्रेम और समपर्ण को… पिताजी से मेरे गहरे वैचारिक मतभेद थे लेकिन एक विचार पर हम दोनों सहमत थे और वो था मेरा आई॰पी॰एस॰ बनना…

दोस्ती, दोस्तों के दम पर होती है… और जब दोस्त ही नही तो दोस्ती की माँग बेवा हो जाती है… अब न मुझे रंजन मिलता और न सज्जाद… पता चला रंजन ने ‘कर्तव्य रक्षा समिति’ ज्वाइन कर ली और सज्जाद चालीस दिन के चिल्ले पर शहर से बाहर निकल गया…

और मैं वहीं का वहीं थमा और रुका रह गया… और फिर किताबों के बोझिल पन्नों को ही दोस्त बना लिया…

सच्चे-पक्के दोस्तों को बहुत बारीकी से मैंने क्रमशः ‘कट्टर हिन्दू’ और ‘कट्टर मुसलमान’ बनते देखा… और जहाँ कट्टरता घर करती है दोस्ती और प्रेम का भाव स्वतः ही समाप्त होने लगता है…

मैं आई॰पी॰एस॰ बन गया… मतलब मुझे मेरा कैडर मिल गया…

उस दिन मन किया कि दोस्तों को इसकी सूचना दूँ… और मैंने रंजन को फोन किया… लेकिन उसने नम्बर बदल दिया था… सज्जाद को फोन किया तो फोन उसकी दुकान पर उसके अब्बू ने उठाया और मेरी कोई हिम्मत नही हुई कुछ बोलने की…

हैदराबाद ट्रेनिंग करते वक्त एक पल ऐसा नही था जब मैंने उन दोनों को याद नही किया लेकिन उन्होंने कभी मेरी खबर तक नही ली…

जिस दिन ट्रेनिंग कम्प्लीट करके वापस लौटा पहले घर नही गया सीधे सज्जाद की दुकान पर बावर्दी पहुँचा…

सज्जाद के मुहल्ले में भीड़ लग गई… लेकिन सज्जाद न मिला… उसके अब्बू दिखे… मैं उनको देखकर जैसे ही लौटने लगा… उन्होंने तुंरन्त मेरा नाम पुकारा और मेरे सर पर हाथ रखा और बोले…

“बेटा शाबास ! खुदा तुम्हें और बुलंदियां अता करे… कहाँ पोस्टेड हुये हो…?”

यहीं कान्हापुर जिले में… पापा की अच्छी जान पहचान की बदौलत यही जिला मिला है अंकल…

सज्जाद के अब्बा अजीब सी नजरों से मुझे घूरने लगे… लेकिन फिर मेरे काँधे पर हाथ रखकर बोले…

“चलो ! इस जिले को एक बेहतरीन ऑफिसर और एक नेक इंसान तो मिला…”

बहुत खुशी हुई… बातों ही बातों में अंकल ने बताया सज्जाद शहर से बाहर है जैसे ही लौटेगा वो उसे मेरे पास भेज देंगे…

सज्जाद की एक तस्वीर भी दिखाई उन्होंने मुझे… और मैं उसे देखते ही ठिठक गया… कल का एक बहुत खूबसूरत और सजीला युवा आज दाढ़ी टोपी में पूरा ढँक चुका था…

ये वो सज्जाद नही था जिसे मैं जानता था… फीकी मुस्कुराहट से विदा हुआ और सीधे रंजन के घर पहुँचा… जैसे ही कपाट खटखटाने के लिए अंगुलियों के पोरे आगे किये तभी अंदर से आती आवाज सुनाई दी…

“एक भी मुसलमान या उसका बच्चा… माँ दुर्गा के पंडाल के करीब नही दिखना चाहिए मुझे… सभी ये बात कान खोलकर समझ लो…”

रंजन की आवाज में इतनी तेजी थी कि वो बहती हवा में शामिल हो गई… और दरवाजा खुद ब खुद खुल गया… दरवाजे पर एक पुलिस वाले को देखते ही लोग खड़े हो गये… रंजन ने बड़ी बारीकी से मुझे देखा और फिर पहचान कर मेरी तरफ दौड़ा चला आया…

“तू… तू… मुझे पता था साले किताबी कीड़े तू एक दिन बहुत बड़ा कांड करेगा… उसने वहाँ मौजूद लोगों को सुनते हुये कहा आओ देखो जे है मेरा दोस्त आई॰पी॰एस॰ अमित वैभव”

रंजन जिस समिति का अध्यक्ष बन चुका था… अब वह इतनी ताकतवर हो चुकी थी कि उसकी अच्छी खासी पकड़ जिले के प्रशासन तक थी… और राज्य स्तर तक रंजन की धमक होने लगी थी…

रंजन ने मुझे गले लगाया… लेकिन उसके गले मे पड़ी रुद्राक्ष की माला मेरे सीने में चुभने लगी… ये माला पहले नही थी… न रंजन पहले धोती-कुर्ता पहनता था… कॉलेज का सबसे हैंडसम लौंडा आज मस्तक पर त्रिपुंड लगाये चमक जरूर रहा था… लेकिन दोस्ती की वो चमक जो उसके चेहरे से पहले छलकती थी वो अब कहीं शेष नही थी….

मैं बेहद उदास होकर घर पहुँचा… पिताजी मुझसे लिपट गये… आशीष दिया… और अपनी अनुभवी आँखों से सब ताड़ कर बोले…

“अब तुम मात्र अमित नही… बल्कि जिले के कप्तान आई॰पी॰एस॰ अमित वैभव हो बेटे… अमित की दोस्ती जरूर साधारण थी लेकिन मुझे उम्मीद है जिले के कप्तान अमित वैभव इस पद की गरिमा और वैभव को बनाये रखेंगे!!!

माँ का लाड़ टूट पड़ा और फिर खुशी की फुलझड़ियाँ जलने लगी…

मैंने वास्तव में कर्तव्य को सारे रिश्तों से मुक्त करके प्रशासन कार्य संभाला… परन्तु एक आँख अपने दोनों दोस्तों पर सदा बनाये रखी… एक दिन गाड़ी से जाते वक्त मुझे सज्जाद दिखा… और मैंने गाड़ी रुकवाई… वो मुझे देखकर बेहद खुश हुआ… और फिर मिलने का वायदा करके अपने लोगों के साथ आगे बढ़ गया…

और अब मैंने भी मान लिया कि सज्जाद और रंजन अब वो नही रहे जिन्हें मैं जानता था…

जिला जैसा शांत लगता था लेकिन वैसा शांत था नही… एक दिन जब मैं ऑफिस में किसी चोरी की वारदात से जुड़ी फाईल देख रहा था तभी खबर आई जिले में दंगा पसर गया है…

मैंने हरगिज जानना नही चाहा कि कारण क्या रहा होगा क्यूँकि भारत का बच्चा-बच्चा जानता है… शिक्षा, स्वास्थ्य,  सड़क, परिवहन आदि मुख्य मुद्दे आंदोलन और हड़ताले पैदा करते हैं…

लेकिन दंगा सिर्फ राजनीति पैदा करती है और वो भी धर्म और मजहब की गोद में बैठकर… मैंने तुंरत ड्राईवर को आदेशित किया कि वह मुझे मुख्य दंगा स्थल तक लेकर चले…

गाड़ी रवाना हुई… और मेरे पीछे पुलिस की छोटी-छोटी टुकड़ियों की कॉन्वॉय भी रवाना हुई…

यह भी पढ़ें: मारवाड़ी कौन | सफलता की पहचान और एक व्यापारिक समूह?

दंगा स्थल पर दो समुदाय एक दूसरे पर पथराव कर रहे थे… मैंने घूर कर देखा इन दोनों समुदाय का नेतृत्व मेरे दोनों जांनिशार दोस्त कर रहे थे… यानि रंजन और सज्जाद…

उस स्थिति को देखकर कुछ पलों के लिए मैं सकपका गया… तभी एक सुमदाय ने फायरिंग की और इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप दूसरे धड़े ने भी फायरिंग करनी शुरू की…

लाशें बिछने लगी… और मैंने तुंरत अनाउंसमेंट किया कि हिंसा और फायरिंग बन्द की जाये लेकिन कोई फर्क नही पड़ा…

मैंने बारीकी से देखा तो पाया कि फायरिंग करने में मुख्य भूमिका सज्जाद और रंजन की है…

मेरे काँपते होंठ और चरमराती हुई साँसे कूपमण्डूक बनने लगी… विचार और विवेक अधमरे होने लगे… तभी मेरी नजर खुद पर पड़ी अपनी ही कार के शीशे पर मैं खुद के काँधे पर लगे अशोक चिन्ह को देखने लगा… ये वही चिन्ह था जो मुझे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य और दायित्व को याद दिला रहा था…

मैंने एक झटके में हाथ बढ़ाकर रिवॉल्वर खींच ली… और क्रमशः दो फायर किए… भीड़ अपने नेताओं को जमीन पर गिरता देख भाग खड़ी हुई…

लेकिन मैं फिर भी खड़ा रहा… बहुत देर तक खड़ा रहा… और मेरे आँसू चीख-चीख कर पुकार करने लगे कि…

“बचा लो रिश्तों को… बचा लो दोस्ती को… मत चढ़ने दो इसे धर्म-मजहब की भेंट…

इंसानियत हर धर्म का मूल है… और इसी मूल पर हर मजहब, हर धर्म की भव्य और बड़ी इमारतें खड़ी होती हैं… हम मूल को भूलकर ढाँचे को सत्य समझ बैठे हैं… ये ढ़ांचा तो ढह जायेगा लेकिन इंसानियत बची रहेगी। क्यूँकि वही विधाता को सबसे अधिक प्रिय और स्वीकार्य है”

लेकिन शायद मेरी किसी ने नही सुनी, सज्जाद और रंजन जैसे मासूम युवा हर दिन कन्वर्टेड हो रहे हैं… और आये दिन सड़के लाल हो रहीं हैं!!!

मैं जो बनना चाहता था वो बनकर भी न बन सका, मेरे हाथ अपने ही दोस्तों के खून से लाल हैं… उन दोनों की लाशें मेरे सामने गिरी हैं…

ये वही शरीर लेकर निढाल पड़े हैं जिन शरीरों के भीतर बहुत पहले एक-एक दिल धड़कता था और जिसकी धमक मुझ जैसे भोंपू और झेंपू लड़के को बल देती थी, मुझ जैसे कायर और किताबी कीड़े को हँसी-ठिठोली करने वाले लौंडे कब का मसल देते अगर सज्जाद और रंजन की दोस्ती की ढाल मेरी रक्षा नही करती…

यह भी पढ़ें: अक्षय तृतीया – अनंत शुभता की शुरुआत – कब, क्यों, कैसे ?

मैंने अपने इन्ही खून से सने हाथों से पहले सज्जाद की कब्र में मिट्टी बुरकी और फिर रंजन की चिता को मुखाग्नि दी… दुःख का पहाड़ सीना तोड़ रहा था लेकिन उसे संतुष्टि के इस भाव ने सम्हाल रखा था… संतुष्टि जो इस भाव पर निहित थी… कि अब इनकी आत्माएं शायद किसी और दुनिया में पुनः दोस्त बनकर मेरी आत्मा की प्रतीक्षा करेंगी… क्यूँकि आत्मा तो अमर है और रूह तो फिर उठाई जायेंगी…….

लेकिन अब… हाँ अब.. .हाँ अब मैं अकेला हूँ ।

"मैं कहानियाँ नही रचता.. कहानियाँ मुझे रचती हैं"

Leave a Comment